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बर्धमानचम्पू:
इक्ष्वाकुवंसवनचन्वन ! वंद्ययद्यपादारविन्द ! नसमौलिसुरेन्द्र सेच्य ! श्रीवर्धमान ! मह्नीय ! नमोस्तु तु तुभ्यं नमोस्तु जितकाममहारिमल्ल!
॥१७॥ चडामणे ! मनुकुलस्य बधावतंस ! नाथाहयान्वयसरोवर मंजकज ! है लिच्छवीयवरमंडन ! पुण्यमूतं ! श्रामण्यधर्मानलक्षक सुरलदीप !
॥१५॥ वीरातिधीर ! भवभोति विनाशकांघ्री मन्मानसे निवसतां सततं स्वदीयो। संसारसिन्धुतरणे तरणीयमानौ तौ मंगलं च कुरुतां नितरां अनानाम् ।
॥१६॥ इत्थं सुरेशजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन्,
श्रीमूलचन्द्र विदुषा मनवावरेण । तार्तीयकः स्तवक एष गतो मुदे स्यात्,
स्वर्ग गतस्य जननीजनकस्य तावत् ॥
बाल्यकाल में ही कामदेव जैसे महामल्ल को पछाड देनेवाले है वर्धमान ! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार हो । प्राप इक्ष्वाकुवंशरूपी वन के चन्दन हो । बन्दीय जनों द्वारा आप सदा बन्दनीय हो । इन्द्रमुकुट झुकाकर आपके चरणकमलों की सेवा में निरन्तर तत्पर उपस्थित रहता है ।। १७ ।।
ग्राप मनुकुल के चूडामणि हो । विबुधजनों के मुकुट हो । नाथवंशरूपी सरोवर के सुन्दर कमल हो । लिच्छवि गणतन्त्र के मण्डन हो एवं धमण धर्मरूप निलय के आप रत्नदीपक हो ।। १८ ।।
हे बौरातिवीर श्री वर्धमान ! आपके भवभीतिविनाशक दोनों चरण मेरे हृदय में सदा विराजमान रहें क्योंकि जीवों को संसार रूपी समुद्र के पार करने में ये नौका के जैसे अवलम्बन स्वरूप हैं । अत: मेरी अन्तिम मनोकामना यही है कि प्रत्येक संसारी जीव इनकी छत्र छाया में रहकर अपनी दुखपरम्परा का विघात कर सत्यसुख का भोक्ता बने ।
तृतीय पुत्र सुरेशकुमार के जनक एवं मनवादेवी के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा निर्मित वर्धमानचम्पू काव्य में यह तृतीय स्तबक समाप्त ।