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वर्धमानचम्पूः
निर्भयतां बलाढ्यतां च संवीक्ष्य दिजुम्भमाणहषोत्कर्षः स नागराजो नुत्वा नवा व स्वमसि सत्यं महायोर इत्यभिधाय स्वस्कंधे च महामोदात्तमारोप्य यथेच्छं ललिस लास्यं संविधाय प्रसन्नमुद्रयोपेतो निजस्थानं निर्जगाम 1 तस्मिन् समये कुमारातिरिक्तास्तत्रापरे चक्रघर - कालघर - पक्षधराख्या इमे त्रयः कुमारा श्रासन् 1
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संगमेन विहिता तस्य नुतिस्थम्
तीर्थंकरप्रकृतिपुष्यजुषोजनस्य नैवास्ति किञ्चिदपि कार्यमाध्यमत्र । देवादयोऽपि ननु यत्प्रभवप्रभावाद् वश्या भवन्ति गणमान्यजनस्य का वा ।। १५ ।।
तीर्थकर्तत्वभूत्या ये भूषयन्ति जगत्रयम् । धन्या घरा गुहं तेषां पवित्रं जन्मना सत्ताम ।। १६ ॥
देखी और बलाढ्यता का विचार किया तो वह मारे हर्षोत्कर्ष के भूम उठा । अन्त में वह उनकी स्तुति एवं नमस्कार करके अपने कंधे पर उन्हें चढ़ाकर खूब नाचा एवं मोदमग्न होता हुआ "आप सच्चे महावीर हो" ऐसा सम्बोधित कर अपने स्थान पर वापिस चला गया। उस समय कुमार के अतिरिक्त वहां पर चक्रधर, कालधर एवं पक्षधर ये तीन कुमार थे ।
जिसने "तीर्थंकर" नाम कर्म की प्रकृति का बन्ध किया है, उसके लिये संसार में कोई भी मार्ग प्रसाध्य नहीं है । देवादिक भी जब उसके वश में हो जाते हैं तो अन्य साधारण जन की तो क्या गिनती है ।। १५ ।।
जो तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृतिरूप विभूति से जगत्रय को पवित्र करते हैं - विभूषित करते हैं ऐसे उन सन्तजनों के जन्म से वह गृह धन्य है और वह धरा भी धन्य है ।। १६ ।।