________________
वर्धमान चम्पू:
तीर्थंकरस्योपवेशः "सर्वार्द्धमागधीया भाषा मंत्री च सर्वजनता विषया" इत्थंभूत मान्यतानुसारतः साधारण जनताया भाषायामेव भवति स्म । अतः प्रत्येक श्रोता तदुपदेशमनायासेनवात्मसात् करोति स्म । स्वस्वभाषायां तं प्रबुद्धध तस्मिन्नुपदेशे सर्वासां तात्त्विकक्षासनां ( सिद्धान्तानां ) विवेचनमासीत् । प्रासीच्च सम्पूर्णजगतो विवरणम् । ऐतिह्यस्यापि कथनम् । तथात्महितसाधकसाधनस्य, जीवाहित विधायककारणस्य, कर्मबन्धनिवानस्य, कर्मविभोचकहेतोः सम्यग्दर्शनाद्यात्मकधर्मस्य तद्विपरीताधर्मस्य, उपासकानुष्ठानस्य, मुनियषस्थ जीवपरिणमनस्य, चाजीव परिणतेश्च वैशद्योपेता व्याख्याऽप्यासीत् । धर्माचर्य हिंसाकरणं महद्बुजिनं तस्मिन् धर्ममतिर्महती तद्विस्मृतिविषयोऽयं तीर्थकरेण जनताया मंगलार्थ प्रभावत्या पद्धत्योबोधितः ।
1
196
तीर्थंकर महावीर का धर्मोपदेश अर्धभागधी भाषा में होता था क्योंकि उस समय यही बोलचाल की भाषा थी । इस भाषा में हुए उपदेश को साधारण जनता भी समझ जाती थी क्योंकि साधारण जनता की बोलचाल की यही भाषा थी । समवशरण में उपस्थित सब जीव प्रभु के उपदेश को अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते थे । उन्हें उस उपदेश को समझने में कोई कष्ट या अड़चन नहीं होती थी । प्रभु के उस दिव्य धर्मोपदेश में समस्त सिद्धान्ता का विवेचन रहा करता था । सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या रहा करती थी | इतिहास सम्बन्धी कथन होता, श्रात्महित साधनों की व्याख्या होती, जीवहितविधायक कारणों का विवेचन होता, कर्मबन्ध के कारणों का निर्देशन होता, कर्मों से छूटने के उपायों का सुन्दर से सुन्दर वर्णन होता । रत्नत्रयात्मक धर्म का और इनसे विपरीत अधर्म का पूर्ण निर्देश होता, श्रावक एवं मुनिधमं के अनुष्ठानों की, जीवों के परिणमन की एवं जीवतत्त्व की परिणति को विशद व्याख्या होती तथा उस उपदेश में जीवों के लिए यह भी उद्बोध रहता कि धर्म समझकर जीवों की हिंसा करना या धर्म के लिए प्राणियों के प्राणों का अपहरण करना यह बहुत बड़ा पाप या अपराध है । जो इसे धर्म मानते हैं, वे धर्म के स्वरूप को जानते ही नहीं हैं ।
T
I