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धधमानपम्पः
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मावा यथेच्छमपि संतरतु प्रमुसः, पानीयवोधिरचनासु हिमांशुरग्निम । सर्यश्च यच्छतु हिमं न तथापि हिंसा करें ददाति खलु किञ्चिवपीह धर्मम्
॥४४ ।।
प्राणाः प्रियाः स्वस्य यथा भवन्ति,
भवन्ति तेऽन्यस्य तथंव जन्तोः । इत्थं परिज्ञाय न हिंसनीया.
प्राणाः परेषां हितकांक्षिणा ना ।। ४५ ॥
प्रस्मभ्यं रोचते यनान्येभ्यो रोचिष्यते कथम् । विज्ञायेत्थं न फर्तव्यं विरुद्धाचरणं क्वचित् ।। ४६ ।।
दया धर्मो ह्यधर्मस्तु हिंसा यत्रास्ति सा ध्रुवम् । तत्र धर्मस्य लेशोऽपि नास्तीति संप्रधार्यताम् ॥ ४७ ॥
पत्थर भले ही पानी की लहरों में छोड़ने पर तैरने लगे, चन्द्रमण्डल से भले ही अग्नि निकलने लगे, सूर्य भले ही शीतलता की वर्षा करने लगे, तब भी हिंसा हिंसा करनेवालों को कभी भी धर्म देनेवाली नहीं होती है ।। ४४ ।।
जैसे जीवों को अपने प्राण प्यारे होते हैं, वैसे ही वे अन्य जीवों को भी प्यारे होते हैं, ऐसा मानकर प्रात्म-हितषी मनुष्य को दूसरे जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए ।। ४५ ।।
प्रत्येक जीव को यह समझना चाहिए कि जो व्यवहार मुझे नहीं रुचता है, वह दूसरे जीवों को भी नहीं रुचेगा, ऐसा जानकर किसी भी जीव के प्रति प्रतिकूल प्राचरण नहीं करना चाहिए ।
धर्म का मूल तो दया है और अधर्म का मूल हिंसा । जहां हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है। वहां धर्म का अंश तक भी नहीं है ।। ४७ ।।