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वर्धमानचम्पूः
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इन्द्रभूत मन:पर्ययज्ञानसम्पन्ने सत्येव तीर्थंकर महावीरस्य मौनं विघटितम् । तत्क्षण एव तस्माद्धनाघनगर्जनाषद् दिव्यध्वनिनिर्गतः । धर्मोपदेशः प्रारम्भो जातः । यस्मिन् दिवसे तस्य मीनभङ्गो बभूव स वासरः श्रावणकृष्णाया: प्रतिपत्तिथिस्वरूप श्रासीत् । अस्मिन् दिवसे हि तीर्थंकर महावीरस्याद्यो धर्मोपदेशो जातः । जनैश्च स महामोदात् सुश्रुतः । यतः कैवल्ये सयुत्पऽपि षट्षष्टिदिवसान् यावत् तस्य प्रभोमीनावलम्बनत्वाद्धर्मोपदेशो नाभवत् । तेषां तावद्गणनेत्थम् - वैसाखमास शुक्लपक्षस्य षट् दिवसाः ( ६ ) | ज्येष्ठमासस्य त्रिशदिनानि ( ३० ) । श्राषाढम्पसस्य त्रिशद्वासराः (३०) । श्रस्य दिवसस्य प्रसिद्धिवौरशासनोदयाख्यया जाता । दिवसमेनं जनता वर्षारम्भदिवस मत्वेव कतिपय शताब्धीपर्यन्तं स्वशुभकार्यारम्भमकरोत् ।
इन्द्रभूति को मनः पर्यज्ञान होते ही तीर्थंकर महावीर का मौन भंग हुआ और उसी क्षण मेघ की गर्जना के समान उनकी दिव्यध्वनि खिरने लगी । उपदेश प्रारम्भ हुआ। जिस दिन प्रभु का मौन भंग हुआ था वह दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का था। इस दिन ही तीर्थंकर महावीर का पहिला धर्मोपदेश हुआ और उसे जनता ने सुना । कैवल्य प्राप्ति हो जाने पर भी प्रभु की ६६ दिन तक वाणी नहीं खिरी । वैसाख के अन्त के ६ दिन पूरा ज्येष्ठ और पूरा प्राषाढ- इस प्रकार से इन ६६ दिनों में प्रभु की दिव्यध्वनि मुखरित नहीं हुई। प्रभु का मौन रहा । जिस दिन प्रभु का सबसे पहिला धर्मोपदेश हुआ वह दिव्य दिवस वीरशासनोदय नाम से जगत् में प्रसिद्ध हुआ माना जाता है । जनता जब भी किसी शुभ कार्य का प्रारम्भ करती तो इस दिन को ही वर्ष का आरम्भ दिवस मानकर करती । ऐसी मान्यता कितनी ही शताब्दियों तक चलती रही ।
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