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वर्धमानचम्पूः
मानस्तम्भ वागतम्भन त हातात एक सूर्यात्तमस्तोम इव विगलितोऽभवज्ज्ञानमदः 1 जातोऽतोऽयमस्वर्वगर्वग्रहगृहीतोऽपि विनेयवद्विनयविशिष्टोऽधुना शिष्टः ।
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तत्र गतेन तेन यदेव श्रमणमहावीरस्थाकारि दर्शनं तदेव तम् प्रति श्रद्धा प्रबुद्धा | गौतमोऽयं ब्राह्मणः समागतस्तु महावीरेण सार्क शास्त्रार्थं कर्त परं च तस्य नैकटयं समुपलभ्य स तस्य सर्वोत्तमः श्रद्धागुणगरिष्ठोऽन्तेवासी समजनिष । तीर्थंकरस्य महावीरस्य वीतरागदशया वृत्या वा स इयान् प्रभावितोऽभूत्, यत्स्वीयं समस्तं समृद्धं व परिग्रहं परिहृत्य महाव्रतश्च समाश्लिष्टं स्वात्मानं विशिष्टं विधाय दिगम्बर मुद्रोपेतो मुनिर्जातः । तस्मिन्नेव काले तेन चतुथं मनःपर्ययाख्यं ज्ञानमेवाप्तम् ।
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दर्शन हुए तैसे ही उसके अन्तस्तल से अपने आप ही सूर्य के उदय से जैसे तमस्तोम - गाढान्धकार विलीन - नष्ट हो जाता है, ज्ञान का मद विगलित हो गया । वह पूर्व में अधिक ज्ञानमद से भरा हुआ था -- परन्तु अब तो बह विनीत शिष्य की तरह शिष्ट-प्रच्छी समझवाला बन गया ।
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यहां पहुंचते हो ज्यों ही उसने महावीर प्रभु के दर्शन किये त्यों ही उसकी प्रस्था-श्रद्धा उनके प्रति जग गयो । जो गौतम ब्राह्मण ज्ञानमंद के प्रवेश से उन्मत्त बनकर महावीर के साथ शास्त्रार्थ करने आया थावही गौतम उनके पास आते ही उनका सर्वोत्तम श्रद्धाशाली शिष्य बन गया ( यह वीतरागता की ही महिमा है ) प्रभु महावीर की वीतरागपरिणति से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि वह समस्त परिग्रह का त्यागकर अपने-आपको महाव्रतों से सुवासित कर दिगम्बर मुद्राधारी गुनि हो गया । दिगम्बर - मुद्रा धारण करते ही उसे चतुर्थ मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।
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