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वर्धमानचम्पू: अतो हिसायाः प्रमत्तयोगात् प्राणज्यपरोपणरूपाया आंशिक परित्यागल्या विरतिहिसाणुव्रतम् । धनृतस्यांशिक परिवर्जन रूपा विनिवृत्तिः सत्याणअतम् । स्तेयस्यांशिकविरमणरूपा विरतिरचौर्याणुव्रतम् । अब्रह्मास्यस्य कुशीलस्यांशिक बिमोचनरूपा विरतिमह्मचर्याणुक्तम् । धनधान्याविरूपपरिग्रहस्यांशिकपरित्यागरूपं परिमाण विधानं परिग्रहपरिमाणाणुव्रतम् ।
एकदा श्रीवर्धमानकुमारस्यानुफ्म जानमहिमानं निशम्य समुद्भूतां तत्त्वविपिणी स्वीयामारेका परिमाष्ट्र संजयन्त-विजयनामानौ वौ चारणद्धि धारको मुविदरों यदा तस्याभ्यशं समागतौ तवा तयोस्तदर्शनमात्रत एव सा स्वीयारेका प्रशान्ता । चकितयोस्तयोर्मनसीदमेव तायभूव यवस्यैव स्वामिनो माहात्म्यमिदम् यदावयोस्तास्विकारेकान्दोलित हवयमस्य दर्शनमारत एव निश्शंकं जातम् । प्रतो विहितं ताभ्यामस्य नामधेयं सन्मतिरिति द्वितीयम् ।
तत्त्वार्थ निर्णयात्प्राप्य सन्मतित्वं सुबोधवाक् । पूज्यो देवायमाद्भूत्वाऽत्राकलको धमूविथ ॥
(उ. पु. ७३/२)
है । हिंसा की अांशिक निवृत्ति से अहिंसाणुनत होता है । झूठ की प्रांशिक निवृत्ति से सत्याणुव्रत होता है । चोरी की प्रांशिक निवृत्ति से प्रचौर्याणुव्रत होता है । कुशील की प्रांशिक निवृत्ति से ब्रह्मचर्याणुव्रत होता है । एवं धनधान्यादिरूप परिग्रह की मांशिक निवृत्ति से परिग्रह प्रमाण अणुनत होता है।
एक दिन की घटना है कि बर्धमानकुमार की अनुपम ज्ञान महिमा को सुनकर दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज जिनका नाम संजय और विजय था अपनी तत्त्व विषयक शंका को दूर करने के लिए उनके पास प्राये । ज्यों ही उन्होंने वर्धमानकुमार को देखा तो उनकी शंका दूर हो गयी। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हना । चकित मन हुए उन्होंने यही सोचा कि यह सब कुछ माहात्म्य इसी का है कि इसे देखते ही हमारा शंका से अान्दोलित मन शंका-विहीन हो गया । इसलिए उन्होंने इनका दूसरा नाम 'सन्मति' रख दिया।