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वर्धमान चम्पूः
यदाज्यं नंद्यावर्तनाम्नि राजभवने जानुभ्यां संचरति स्म तवर मरिणनिर्मितायां भित्तौ प्रतिविम्बितं स्वात्मानं समुनीक्ष्य तद्विम्बं यवा गृह्णाति तदा संप्रेक्षकानां मनसि आयते स्मारेकेत्थम् यतीर्थंकरद्वयं किंस्वमिथो मिलति ।
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या कदाsसौ मरिपनिर्मितायां, भित्तौ समुद्वीक्ष्य चरन् सबीरः । रूपं स्वकीयं प्रतिबिम्बितं तज्जग्राह, चित्ते समभूज्जनानाम् ॥ १३ ॥
संप्रेक्षकानां नतु तीर्थंकर्तृद्वयं मिथो नो मिलतीति शास्त्रे, यदुक्ततत्तदिहास्त्य सत्यं यतश्च तौ द्वौ मिलतो ऽधुना ॥ १४ ॥
वायं जातोऽष्टवर्षायुष्क स्तदाऽनेन विनोपरोधादात्मशोधनाभिप्रायेण, स्वत एव पंचाणुव्रतानि महता ऽबरेगांगीकृतानि । हिंसानृतस्तेथाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः पंचपापेभ्यो बिरतिरांशिकाऽणुव्रतस्वरूपा निगद्यते ।
जब ये नन्द्यावर्त नामक राजभवन में घुटनों के बल चला करते सब मणिनिर्मित दीवाल पर जब इनका प्रतिबिम्ब पड़ता तो उसे देखकर ये प्रभु उसे पकड़ने लगते, तब देखनेवालों के मन में ऐसी शंका होने लग जाती कि क्या ये दो तीर्थंकर आपस में मिल रहे हैं ?
यही बात इस श्लोक युग्म से प्रकट की है कि शास्त्र में तो ऐसा लिखा है— कहा गया है कि दो तीर्थकर आपस में कभी नहीं मिलते हैं सो यह बात सत्य प्रतीत होती हैं क्योंकि यहां तो ये दो तीर्थंकर मिल रहे हैं ।। १३-१४ ।।
जब वर्धमानकुमार ठीक ८ वर्ष के हुए तब इन्होंने बिना किसी के कहे ही अपने आप ही श्रात्मशोधन के अभिप्राय से पांच अणुव्रतों को बड़े आदरभाव से अंगीकार किया । इन पांच अणुव्रतों में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का प्रांशिकरूप से परित्याग हो जाता