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वर्धमानबम्पूः कंज-यव-चापाविप्रशस्तचिन्है रूपेतो देवरप्यलधनीयश्वासीत् । मासोदयं अन्मत एव ज्ञानत्रयेण समन्वितः ।
श्रीमत्पूज्य पुरुषाणां देवेषां चरमाङ्गिनाम् । पापूर लौकिका पनि निराहा ! १२ ॥
यथाऽयं बाह्यपदार्थावबोधनक्षमेण विज्ञानेनाद्वितीयो जज्ञे तर्थव स्वानुभूतिविधानदक्षेणाध्यास्मिकज्योतिषाऽप्यसम्बानुपम एव, यतः पूर्वमवे समुवितं क्षायिकाश्यं सम्यक्त्वमस्यात्मनि प्रकाशितमासीत् । एतादृशा विशिष्टानां महिम्नां सोऽयं तीर्थकरः साक्षात् पुज इवासीत् ।
नहीं था। उनका शरीर शंख, चक्र, कमल, यव और धनुष आदि के चिह्नोंवाला था । देवों का बल भी प्रभु के बल के समक्ष हेच था । प्रभु जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के धारी थे।
श्रीमान् पूज्य पुरुष्वों के, देवों के स्वामी इन्द्रों के और चरम शरीरवालों के प्राचार आश्चर्यकारक, अपूर्व एवं अलौकिक हुअा करते हैं ।।१२।।
जिस प्रकार प्रभु बाह्य पदार्थों के ज्ञान कराने में समर्थ विज्ञान से अद्वितीय थे, उसी प्रकार वे स्वानुभूति कराने में दक्ष ऐसी प्राध्यात्मिक ज्योति से भी असाधारण थे । क्योंकि पूर्वभत्र में समुदित हुआ क्षायिक नामका सम्यक्त्व इनकी आत्मा में प्रकाशित था । ऐसी विशिष्ट महिमानों के पुञ्ज वे तीर्थकर थे।