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वर्धमानचम्पू:
द्वितीयेन्दु कलायवर्धमानोऽसौ वर्धमानकुमारो बालोचितामिविविधाभिः स्वलीलभिजनननीजनको निखिलं च राजपरिवारं संत्रीणयन् सर्वेषां प्रीतेरास्पदं बभूव । जन्मत एवास्य वपुष्यप्रतिम सौन्दर्येण मुले राकासुधादीधितिना, नयनयुग्मे सरोजन नासिकायां यवनालका कणयुगले कीतिध्वजपटेन पाणावसाधारणबलेन पादारविन्दयोश्च पवित्र संक्रमणेन संस्थानमकारि। विग्रहोद्भुतनिखिलाङ्गोपाङ्गगणोऽस्थान्यूनोऽनतिरिक्तः पूर्णः प्रमाणोपेतश्चासीत् । नासीत्कुत्रापि कस्यचिपि किञ्चिदप्यल्पत्वं हीनत्वमधिकत्वं वा, सहजालिशयतोऽस्य देहः स्वाभाविक सुगन्ध सहितत्वात् गंधतिकालय इवाभवत्, नाभवतत्राल्पीयानपि प्रस्वेदलेशो परिमितबलस्य तत्राधिष्ठानात् । पाचनशक्तेरसाधारणत्वान्मलमूत्रादीनामप्यभावोऽभवत्तत्र । जातं च तस्य शुभ्रवर्णोपेतं शोणितं वेहे । मधुरा चास्य वाणी द्राक्षाया माधुर्यमपाकरोति स्म । विग्रहोऽप्यस्य कम्बु-चक्र
गये-तब से प्रारम्भ हुआ है । वर्धमान कुमार द्वितीया के चन्द्रमा की कला की तरह वृद्धिगत होने लगे । वे अपनी नाना प्रकार की बालोचित क्रीड़ानों द्वारा माता-पिता के एवं अपने समस्त पारिवारिक जन के मन को मुदित करते हुए उन सबकी परमप्रीति के पात्र बन गथे । जन्म से ही इनके शरीर में अनुपम सौन्दर्य था। मुख इनका पुणिमा के चन्द्र जैसा खिला हुआ था। दोनों नेत्र इनके कमल के जैसे सुहावने थे। नासिका इनकी यवनाली के समान मनोरम थी । कर्णयुगल इनका कीतिध्वज के वस्त्र जसा विस्तृत था । इनके बाहुयुगल असाधारण बल के भण्डार थे । पादार बिन्द इनके पवित्र चंक्रमण से सनाथ थे। इनका समस्त शारीरिक अंगोपाङ्ग पूर्णता से भरा हुआ था और अपने-अपने प्रमाण के अनुरूप था । वह न अधिक था न कम था। शरीर इनका स्वभावत: सुगन्धित था। अतः वह ऐसा प्रतीत होता था कि मानो धूपबत्ती का एक विशिष्ट घर ही हो । प्रभुके शरीर में पसीना नहीं पाता था, क्योंकि वह अपरिमित बलशाली था । मलमूत्र का भी वहां अभाव था—कारण कि प्रभु की पाचनशक्ति असाधारण थी । उनके शरीर का रक्त भी दुग्ध के जैसा शुभ्र वर्ण का था। प्रभु की वाणी इतनी मिष्ट थी कि उसके समक्षद्राक्षाका माधुर्य भी कुछ