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वर्धमानचम्पूः बहिरवततार । प्रासीत्तत्र स्वच्छकारण्ये शिला । सघुपरि शज्या रत्नचूर्णन कलाकृतिसमन्धिनमेकं विरचितं स्वस्तिकं तदुपरि तीर्थकरो बर्द्धमानस्तस्थौ । तत्र तस्थुषा तेन स्वाङ्गाद् घृतानि सर्वाणि वस्त्राभूषणान्यनाण्युत्तारितानि । धृतं च कृत्रिमं वेषं परिहाय प्राकृतिक स्वतन्त्रं यथाजातरूपं श्रामण्यम् । कृष्णाः कुटिलाश्च केशाः क्लेशसमा मूलादुत्पाटिलाः पंचभिमुष्टिभिरेव । मुनिमार, केशोत्साहनक्रिया नियमाणा शारीरिकमोहमामलापरित्यागसूमिका भवति ।
___ सबनन्तरं तेन "नम: सिद्धेभ्यः” एवं विधं समुच्चार्य सिद्धान सकल कर्मकान्तार विदग्धान् प्रणम्य पंचमहाप्रतानि मयूरपिस्ट्रिका कमण्डलुश्च देख्ने । प्रत्यास्याय निखिल सायचं योग पनासनस्थेनात्मध्मानरूपसामायिके तल्लीनतांगीलता।
आये-उतरे । वहां वन में एक शिला थी। उस पर इन्द्राणी ने रत्नों के चूर्ण रो कलाकृति युक्त एक स्वस्तिक बनाया । उस पर तीर्थंकर वर्धमान विराजमान हो गये । वहां बैठकर उन्होंने अपने शरीर पर से पहिरे हुए वस्त्र और प्राभूषणों को उतारा और कृत्रिम वेष का परित्याग करके प्राकृतिक स्वतन्त्र यथाजात रूपवाली श्रामण्य अवस्था धारण कर ली। काले कुटिल--धुंधराने-केशों को उन्होंने क्लेश के समान जड़मूल से पांच मुट्ठियों से उखाड़ दिया । यह पंचमुट्टिकेशलोंचक्रिया शरीर के प्रति मोहममता के प्रभाव की सूचक होती है।
इसके अनन्तर उन्होंने 'नमः सिद्धेय : सिद्धों को नमस्कार करके पांच महावतों को, मयूरपिटिका को और कमण्डलु को धारण कर लिया एवं यावज्जीवन सर्व सावध योग का परित्याग कर प्रात्मध्यानरूप सामायिक में वे पद्मासन से विराजमान हो गये ।