________________
बर्धमानचम्पूः
इत्थं स्वजननीं पितरं वंश्याम् प्रियजनांश्च प्रयोध्याश्वास्य च स्वभवनादहिरिय निर्मोकात् स बहिरागच्छत् । सबुबोधप्रदवाक्प्रीणितसबन्धुः सर्वः सरनन्यं विसिजितोऽसी जयघोषयं भू परिवर्तस्ततो विद्याधराधिस्ततश्वानिमिषाधीशेः स्वस्कंधमारोपितां चन्द्रप्रभाख्या शिक्षिकामधिरुह्य वैशालीतो मध्यमध्येन संवाद्यमानो जातृखण्डाभिधानं तपोवनं संप्राप । प्रासीत्तत्रत्या वनश्रीः प्रसूनौर्थः पहलवंश्च प्रफुल्लिता नरपि भूरिभिर्यत्र तत्रोद्गतेर्हरितांकुरैः श्यामला, निर्वाधगस्था प्रवहमानः शुद्धः शीतलः समीरः प्रशान्तिकररकस्य जनकोलाहलस्य, चेतसि विक्षेपविधायकस्य च पार्थसार्थस्याभावः । तस्मिन् शान्ते कान्ते च निर्जने कान्तारे सा शिविका तेरानीय स्वस्कंधादुत्सारिता नोर्याच धुता । वर्द्धमानमहोत्साहोऽसौ वर्धमानकुमारो महोत्साहपूर्वक सच्छिविकातो
127
इस प्रकार अपने माता-पिता और प्रियजनों को समझा बुझाकर और उन्हें धैर्य बंधाकर वे वर्धमान कुमार काचली से जैसे सर्प बाहर निकल जाता है उसी तरह अपने भवन से बाहर आ गये । सबोधवाणी से जिन्हें संतुष्ट कर दिया गया है ऐसे बन्धुजनों ने इन्हें आनन्दपूर्वक तपोवन जाने की शुभ सहमति प्रदान की । वर्धमान उसो समय चन्द्रप्रभा पालकी पर आरूढ हो गये । सबसे पहिले उस पालकी को जयघोषपूर्वक नरपतियों में बाद में विद्याधरों ने और इसके अनन्तर देवों के स्वामियों ने अपने-अपने कंधों पर उठाया । वैशाली के ठीक बीचों-बीच मार्ग से होकर वे उस पालकी को लेकर ज्ञातृखण्ड नाम के सपोवन में पहुँच । चहां की शोभा ही निराली थी। वनश्री पुष्पों और पहलवों से प्रफुल्लित हो रही थी। भूमि भी इधर उधर के प्रदेशों में उत्पन्न हुए दर्जा के हरे-हरे अंकुरों से श्यामल बनी हुई थी। निर्बाध गति से शुद्ध बोतल मन्द समीर बह रहा था । प्रशांति का कारण जन - कोलाहल एवं चित में चञ्चलता उत्तपन्च कर देते वाला ऐसा कोई भी पदार्थ वहां नहीं था । उस शान्त सुहावने निर्जन बन में वह शिविका उन्होंने अपने कंधों से उतारकर नीषं रख दी। वर्धमान महोत्साहमंडित के वर्धमान कुमार बड़े भानन्द से उस शिविका से बाहिर