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वर्षमानचम्पू
पेषां यशोभिर्धवलीकृताशा याम् बीक्य येवा अपि मोयिनःस्युः। अखर्वगर्वोनतमस्तकारले कामेन नीताः क्व गता न वेदिम ॥ ३९ ॥
माता पिता मित्र सुतात्माश्च भ्राता स्वपत्नी व मनस्विनस्ते । गता पक्ष कालेन विमिर्दयेन हता, पिचरस्थोऽत्र न कोऽपि भाषः।। ४० ॥
सना वयं पाशुरता प्रभूम यस्ते ममाग्रे ननु पश्यतो हा! गता ममद्वारमितो विमुच्य रमा ध रामा च सुता सवित्रीम् ॥४१॥
इत्थं विमोहं परिहत्य शत्रु विचार्य संसारपरिस्थिति स्यम् । दीक्षां समादित्सुममुं स्वपुत्रं मिलोस्म सामोदमना भवाम्न ।। ४२ ।।
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जिनके यश से चारों दिशाएँ धवलित हो रही थी और जिन्हें देखकर देव तक भी हधित हो उटते थे तथा जिनका मस्तक अखर्व गर्व उत्तंग बना रहता था उन्हें भी काल ने अपमा कलेवा बना लिया और वे कहाँ गये मैं नहीं जानता हूं ।। ३६ ।।
माता, पिता, मित्र, मृता, पुत्र, भ्राता, परनी और मनस्वी जन इन सबको अब निर्दयी काल ने नहीं छोडा तो इससे यही जानना चाहिये कि यहां कोई भी पदार्थ चिरस्थायी नहीं है ।। ४० ।।
जिनके साथ हम धूलि में खेले वे मेरे देखते-देखते ही रमा, रामा, पुत्री और माता को बिलखती छोड़कर यमराज के द्वार पर पहुंच चुके हैं ।। ४१ ।।
है माता ! इस प्रकार की सांसारिक परिस्थिति का विचार करके सुम्हें इस माह रूपी शत्रु को दूर कर देना चाहिये और दीक्षा ग्रहण करने की मेरी उत्कण्ठा आनकर तुम्हें हर्षित होना चाहिये । ४२ ।।