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बर्धमानमः
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मुम्बप्रतारपसरणमोहशत्रु
जित्वा, निजात्म हिललीममना भवेयम् । प्राज्ञ प्रदेहि चननित्वमतश्च मा,
सोन, न मोहबशतोऽव निरोधिका स्याः ॥३६॥
चक्राधिपेपरनिशं सुखस्य--
दिनस्य राधरपि भेवभावः । नानायि, तेऽप्यायुषो हाऽचसामे.
गताः स्य कालेन विगिता स्याः ॥ ३७॥
विषत्कुलाङ्गार निभा भ्र वोश्च,
विकारतस्तजित वीरवारा। यमेन ते चरिणतमानशृङ्गाः,
गता! क्व कालेन विनीयमानाः ॥ ३८॥
हे माता ! मैं मुम्न जनों को प्रतारण करने में तत्पर ऐसे मोहरूपी शत्र को जीतकर अपनी आत्मा का हित करने में तत्पर होना चाहता है। इसलिए हे माता ! तुम मुझे तपोवन में प्रवेश करने की मीघ्र माझा प्रदान करो, मोह के वश होकर मूझे रोको मत ।। ३६ ॥
निरन्तर सुख में आपाद मग्न हए वे चक्रवर्ती भी जिन्हें सूर्य के उदय और अस्त होने का समय भी ज्ञात नहीं हो पाता पा, प्राय के समाप्त हो जाने पर काल के द्वारा चकनाचूर कर दिये गये, वे कहां गये इसका कोई पता नहीं ।। ३७ ॥
शत्रुओं के लिए जो धधकती हुई अग्नि के जैसे थे तथा जिनकी तिरछी भ्र को देखकर बड़े-बड़े वीर दहल जाते थे, जब यमराज ने उन्हें अपने वश में कर लिया तो उनका अभिमान शिखर धराशायी हो गया मोर वे काल-कवलित होकर कहां गये इसका पता भी नहीं है ।। ३६॥