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वर्धमानधम्पू:
न कोऽपि कस्यास्ति सुतो न माता,
भ्राता पिता, मोहमपस्य लीला। बंधन निहिला इमेल,
भूतार्यदृष्ट्या स्वयमेक एव ।। ३३ ।। जोवो बिमोहेन परान् स्वभिन्नान,
संयोगिनः स्वान् परिकल्प्य, तेषाम् । योगे वियोगे सुखदुःखमारवाद
बध्नाति कर्माणि नवानि मातः ॥ ३४ ॥
मातस्त्वमेव परिचिन्तय कस्य कोऽत्र, संयोगिनां नियमतोऽस्ति वियोग इत्थं । चिसे विचिन्त्य शिथिली कुरु मोहजालं, मा ह्यनुज्ञां जननि प्रदेहि ॥३५॥
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इस संसार में न कोई किसी की माता है न कोई किसी का पिता, न कोई किसी का पुत्र है न कोई किसी का भाई, ये जितने भी सम्बन्ध हैं वे सब मोह की लीला--तमाशे-रूप ही हैं । यथार्थ दृष्टि से विचार करने पर तो यह प्रात्मा स्त्रयं अकेला ही है ।। ३३ ।।
मोह से विमोहित हुआ यह जीव अपने से सर्वथा भिन्न संयोगा पदार्थों को अपना मानकर उनके योग में हर्षित और वियोग में दुःखित होता रहता है और नवीन कर्मों का बंध करता रहता है ॥ ३४ ।।
हे माता ! तुम स्वयं इस बात का विचार करो, यहां कौन किसका है । जा ये सयोगो पदार्थ हैं उनका तो वियोग होना ही है । ऐसा सोचकर इस मोहजाल को तुम शिथिल करो और मुझे तपोवन में प्रवेश करने की यात्रा प्रदान करो ॥ ३५ ।।