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वर्धमानचम्पूः
123 संयोगिनो ये परिणामभाजो भगवा ध्रुवास्तेन विनश्वरत्वात् । तथापि ताम् स्वान् परिकल्प्य मोहात् तेषां व्यये दुःखमुपैति जीवः
॥३०॥
मोहेन मृतिकवादस्य औपब सो आव न स्वभावौ । विभावभाधौ भवदुःखहेतू संसारसंवर्धकतायतोत्र ॥ ३१ ॥
एकत्र राग ह्यपरत्र कुर्वम् वर्ष भयं नाल्पमसौ करोति । मनुष्यपर्यायमुपागतस्य लाभो न कोप्यस्य बभूव तस्मात् ॥ ३२ ॥
मा ! जितने भी संयोगी पदार्थ हैं वे सब परिणमनशील हैं । कोई भी ध्रुव नहीं है क्योंकि द्रध्य की पर्यायें विनाशशील हैं । तब भी मोही जीव उन्हें अपनी मानता है और उनके परिवर्तन में मोह के कारण दुःखी होता है ॥ ३० ॥
___जीब की ऐसी स्थिति न होने का कारण मोह-उसके साथ जो लगाव है वह है-अनादिकाल से जीव के साथ लगा हुया जो मोह-रागहै वही पर पदार्थों की "ये मेरे हैं" ऐसी मान्यता करवाता है । राग और . द्वेष जीव के स्वभाव नहीं हैं—विभाव हैं और ये दोनों ही भवदुःख के कारण हैं ये जीव के संसार-वर्धक हैं ।। ३१ ।।
जीव को कहीं राग परिणति होती है, किसी के साथ द्वेष परिणति होती है । यही परिणति तो जीव के संसार की अल्पता नहीं होने देती है। मनुष्य पर्याय पाकर भी यदि जीव ने अपने संसार को अल्प नहीं किया तो मनुष्य पर्याय पाने का उसे क्या लाभ मिला ।। ३२ ।।