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वर्धमान थम्पूः
निगोवराशेर्व्यवहारराशी निमित्तमासाद्य समागतेन । यथाकथंचिन्नर जन्मलब्धं व्यथा न जीवस्य तथाऽपि नष्टा ।। २७ ।।
विचार्यतां कारणमत्र किंवा यदस्य संसारकथाऽवशिष्टा । कथं न संसारभवोऽस्य मष्टो मनुष्यपर्यायमुपागतस्य ॥ २८ ॥
केनापराधेन जड़ीकृतोऽसौ जीवोऽप्रशस्तास्त्रषकारणं किम् । मुहुर्मुह प्रतिबोधितोऽपि कथं न सन्मार्गति वधाति ।। २६ ।।
इत्थं पृष्टा जननी यथा न किञ्चिज्जगाव तवा वर्धमानेन संबोधनार्थमिवमग्रे निगदितम् ---
हे माता ! यह जीव निगोद राशि से किसी निमित्त के बल पर व्यवहार राशि में ग्राकर बड़ी मुश्किल से मनुष्य जन्म प्राप्त करता है, फिर यह अपनी व्यथा की कथा को नष्ट नहीं कर पा रहा है ॥। २७ ॥
सो हे मां ! सोचो इसका कारण क्या है ? ऐसा इसके द्वारा कौनसा अपराध बन गया है कि जिसकी वजह से यह अज्ञानी बना हुआ है और रातदिन प्रशुभ कर्मों के प्रास्रव का कर्ता हो रहा है। इसका कारण क्या है ? इस सम्बन्ध में इसे बारम्बार समझाया भी जाता है तब भी यह सचेत नहीं होता और सन्मार्ग की योर नहीं भुकता है । माँ ! इन सब बातों का तुम स्वयं विचार करो ।। २= २६ ।।
इस प्रकार जब वर्धमान कुमार ने माता से पूछा तो उसने इन्हें जब कुछ भी उत्तर नहीं दिया, तब वर्धमान कुमार ने उसे पुनः सम्बोधनार्थ इस तरह से आगे और कहा
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