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चचच्चारुवृहद्ध्वजो अतियुतं सर्वासु दिक्षु स्थितम् । मानोत्मादविमोचकं स्मयवतां सार्थाभिधानं महत् ॥ १३ ॥
मानस्तंभ चतुष्टयं समभवत्तच्छधर्नय प्रभोः । रेजेऽनन्तचतुष्टयं किमिह भोः ! कर्मक्षयेोत्थितम् ॥ १४ ॥
सा भवते गत्वा
त्रिभिप्रेश्च चतुभिश्च
सरोभिः
मंडपे राजते रम्या
गौपुररेष
वर्धमानचम्भूः
मण्णावहिः ।
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पुष्पवाटया व क्रीडोद्यानेन
राजते ।। १५ ।।
संयुते । गंधकुटधाख्यवेदिका ।। १६ ।
उस सभामण्डप की चारों दिशाओं में बड़ी ध्वजाओं से युक्त चार मानस्तम्भ बनाये गये । ये मानस्तम्भ सार्थक नाम वाले थे क्योंकि इनको देखते ही मानियों का मान अभिमान चकनाचूर हो जाता था ।। १३ ।।
यहां कवि की ऐसी कल्पना है कि प्रभु के प्रकट हुए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्थं ये चार अनन्तचतुष्टय ही इन चार मानस्तम्भों के ब्याज से सुशोभित हो रहे हैं । १४ ।।
ये चारों मानस्तम्भ सभामण्डप के बाहर होते हैं । सभामण्डप तीन कोटों प्रौर चार दरवाजों से युक्त था ।। १५ ।।
वहां खेलने का मैदान भी बनाया गया था । तालाब और बगीचों की भी रचना की गई थी । मण्डप में एक गंधकुटी - वेदिका - भी बनाई गई थी ।। १६ ।।