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वर्धमानचतुः
सन्मध्ये राजते रम्पं मणिनिर्मितमासनम् यत्र संस्थित्य धर्मशो धर्म शास्ति सुखावहम् ॥ १७ ॥
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जन्मजातानि वैराणि मुक्त्वा तिष्ठन्ति देहिनः । साम्यभावं समाश्रित्य तस्मिन धर्मसभास्थले || १८ |
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तदनन्तरमेव वेबदुंदुभीनां निनादो मोदोत्कर्षनिदानोऽभूत् । प्रभूतदूरस्थापित राति निशम्य दविष्ठवेशवतिनामपि जनानां चेतसि जातोऽयं विनिश्थ्यो यत्तीर्थकर्तुं महावीरस्य समबशरणं रचितमिति । यदेदृशी वार्ता बहुवरस्थानामपि कर्णयुगलगोचरा
इस गंधकुटी के ठीक मध्य भाग में मणिजटित एक सुन्दर सिंहासन निर्मित किया गया था जिस पर अन्तरीक्ष में विराजमान होकर तीर्थकर महाबीर धर्म का उपदेश करेंगे ।। १७ ।।
उस धर्मसभा में प्रभु की दिव्यवाणी को सुनने के भाव से भागत प्राणी - ~तिर्यञ्च गति के जीव- जन्मजात वैर को छोड़कर परस्पर बड़े प्रेम से अपने कोठे में बैठते हैं और प्रभु का उपदेश सुनते हैं और सब अपनीअपनी भाषा में उसे हृदयंगम करते रहते हैं ।। १८ ।।
इसके अनन्तर देवदुन्दुभियां बजने लगीं जिसे सुनकर लोगों को अपार हर्ष हुआ । इनकी दूर-दूर तक फैली हुई चित्ताकर्षक मधुर ध्वनि को सुनकर दूर-दूर स्थानों पर रहने वाले मनुष्यों के चिल में ऐसा निश्चय हो गया कि तीर्थंकर महावीर का समवशरण रचा जा चुका है ऐसी बात जब उन मनुष्यों के कान में पड़ी जो बहुत दूर-दूर तक रह रहे थे, तब
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