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वर्धमानः
जाता तवा ते संत्यक्तसर्वसंगस्य मुक्तकबलाहारस्य, स्वीकृताम्बराम्बरस्य,
तपः श्रीवल्लभस्य,
त्रिभुवनललामभूतस्याष्टमंगलध्यनव निधिसमेत नाट्यशाला धूपघट घंटाध्वजाभिराम नागकुमार द्वारपालक विराजिते तस्मिन् तस्य देवस्य दिव्यधर्मोपवेशश्रवणोरकंठया दूरदूरादपि समागत्यर्जुकूलानथास्तटे निमिते सभामण्डपे समावेता श्रभवन् । विस्तृत देवसमूहपरिवारः परितः परिवृतः शक्रोऽपि तत्र समुपस्थितोऽभवत् । तत्रोपस्थितेन मणिमयसिंहासनमधितिष्ठतश्चतुरंगुलगगनसले शोशुभ्यमानस्य तीर्थकर्तुः केवलपवस्य तेन महामहिमोपेतो महोत्सवः कुतः । पश्चाबू भक्त्या प्रणम्य समभ्यर्च्य चैवं संस्तुतिस्तेन प्रभो स्तने । तथाहि
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ये सब सर्वप्रकार के परिग्रह से विहीन, कबलाहार से विहीन, प्रकाशरूपी वस्त्र से सुशोभित, तपःश्री के परम प्यारे, त्रिभुवन के तिलक ऐसे महावीर के अष्टमंगल और नवनिधि समेत समवशरण में उनके दिव्य उपदेश को सुनने की उत्कंठा से प्रेरित होकर एकत्रित होने लगे 1 यह समवशरण नाटकशाला से धूपघटों से एवं ध्वजाओं से तथा घंटाओं से चित्ताकर्षक था । नागकुमार जाति के भवनवासी वहां द्वारपाल के पद पर नियुक्त थे । समवशरण की रचना ऋजुकूला नदी के तट पर हुई थी । इन्द्र भी अपने समस्त देव परिवार से घिरा हुआ वहां श्राया 1 यहां आकर उसने मणिमयी सिंहासन पर चार अंगुल अवर विराजमान महावीर प्रभु के कैवल्य पद का महान् उत्सव किया। इसके बाद भक्तिपूर्वक वन्दना नमस्कार करके एवं पूजा करके इस प्रकार प्रभु की स्तुति की --