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वर्धमानवम्पूः
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नाथ ! त्वया निजहिताप्तिकृते समुत्थ--,
भाव-प्रवाह-परिपूरित—मानसेन । त्यक्तं समृद्धमभयप्रदमङ्गदेश
वैशालिराज्यमरिकंटक-शून्य-माढ्यम् ॥१६॥ प्रिंशसुवत्सरमितं समयं हनषी,
है वैशलेय नियसन निजसद्मनि त्वम् । तोये पयोज इव नाथ ! च पूर्वजन्म-,
स्मृस्याऽभवः सुमतिकोष ! मुनिर्युक्त्वे ॥२० ।। यस्य ज्ञानं हतिशययुतं पुण्यकर्म प्रशस्तम्,
ध्वस्ता यस्मान्मवन विकृतिश्चाकृतिः सोमसौम्या । धैर्य यस्याविचलितमहो बंदनीयं मुनीन्वः
शक्तः कः स्यात् त्रिभुवनगृहे संस्थितं तं विकर्तुम् ॥ २१॥
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हे नाथ ! आपने प्रात्मकल्याण करने के निमित्त उत्पन्न हुए भावों के प्रवाह से परिपूरित मनवाले होकर विहार प्रान्तस्य वैशाली के समृद्ध, अभयप्रद, शत्रुरूपी कंटक से शून्य ऐसे विशाल राज्य का परित्याग किया ।। १६॥
श्राप पानी में कमल की तरह निलिप्त भाव से ३० वर्ष तक राजमहल में रहे । वहाँ रहते-रहते पापको सहसा अपने पूर्वभव की स्मृत्ति आ जाने से भर जवानी में आपने मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली ।। २० ॥
हे प्रभो ! आपका ज्ञान प्रतिशय सम्पन्न है । पुण्यकर्म भी आपका सर्वोत्कृष्ट है । कामदेव भी आपके चित्त को विचलित नहीं कर सका। आकृति भी प्रापकी चन्द्रमा के जैसी सलोनी है। धैर्य भी प्रापका अविचल है । मुनीन्द्रों द्वारा आप वंदनीय हैं। त्रिभुवनरूपी ग्रह में रहते हुए ऐसे प्रापको ऐसा कौन शक्तिशाली है जो विचलित कर सके ।। २१॥