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वर्धमानचम्पू:
स्वामिन् ! जाता जगति महिता भारती ते, यतः सा, हेयादेयप्रकटनपराऽऽवित्यरूपाऽस्तदोषा
। प्रिभ्यामार्ग परशुनयतः खंडयन्ती विपक्षम्,
स्वस्यां पूर्ण ह्यविजितपरा ज्ञानिनस्तां श्रयन्ते ।। २२ ।।
सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति,
जना यवित्यं प्रवदन्ति लोके । न सर्वथा सत्यमिदं यतश्च, .
विभो ! तथा सन्ति न ते गुणास्ते ।। २३ ।।
त्वां ये परीक्ष्येव तथाऽपरीक्ष्य भान्ति ते सन्ति फले समानाः । बुद्धाऽप्यदुद्धाऽप्यहिफेनमत्र जनो हदन याति समानवृत्तिम ॥ २४ ॥
हे नाथ ! संसार में आपका धर्मोपदेश इसलिए पूज्य हुआ है कि वह निर्दोष सूर्य के समान हेय और उपादेय का ज्ञान-भान--कराता है। जिस प्रकार परशु काट छांटकर पदार्थ को-काष्ठ को-अभिलषित रूप में ला देता है, उसी प्रकार स्याद्वादरूपी आपकी भारती मी सदोष विपक्ष-एकान्त पक्षों का निराकरण कर उसे अभिलषित अर्थ की हेय
और उपादेय की उद्बोधक होती है। इसलिए परीक्षाप्नधानीजन उसका प्राश्रय करते हैं ।। २२ ।।
हे स्वामिन् ! संसारस्थ जीवों की जो ऐसी मान्यता है कि जितने भी गुण हैं वे सब काञ्चन के नाश्रित होते हैं अर्थात् धन के होने पर ही सुशोभित होते हैं सो ऐसी मान्यता सर्वथा सत्य नहीं है क्योंकि आपके जो ज्ञानादि गुण हैं वे बिना द्रव्य के भी जगत्पुज्य हो रहे हैं ।। २३ ।।
हे नाथ ! मनुष्य चाहे परीक्षाप्रधानी हो चाहे माशाप्रधानी, किसी भी स्थिति में आपकी सेवा, पूजा, भक्ति आदि करने पर फल तो उन दोनों को समान ही मिलता है। जैसे ज्ञात अवस्था में अथवा अज्ञात अवस्था में खाई गई अफोम अपना नशा खाने वाले को देती है ।। २४ ।।