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वर्धमाननम्पू:
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तीर्थकराल्यप्रकृतेः प्रभावाद्धर्याविशेषु समुद्भवानाम् । कल्याणका ये च भवन्ति पंच नामानि तानीत्यमहं ब्रवीमि ॥ ॥
प्रथमं गर्भकल्याणं जन्मात्यं स द्वितीयकम् । दोक्षाभिधं तृतीयं च ज्ञानाह्वयं चतुर्थकम् ॥६॥
मोक्षायं पंचमं ज्ञेयं धर्मतीर्थविधायिनाम् । भवन्त्येतानि सर्वाणि धन्यस्तेषां भवोऽङ्गिनाम् ॥ १० ॥
-युग्मम
वीरेण केवलं लब्धं यदा ज्ञातं मुराधिपः । तदा संभूय सर्वस्तरागतं सत्र हेलया ॥ ११ ॥
शक्कादिष्टकुबेरेण यथाशीघ्र विनिर्मितः । विस्तृतो मंडपश्चको द्वादशकोष्ठसंयुतः ॥ १२ ॥
तीर्थकर-प्रकृति के प्रभाव से ऐसे जीव हरिवंश आदि उत्तम वंशों में ही उत्पन्न होते हैं। उनके जो पांच कल्याणक होते हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-|| ८ ।।
(१) गर्भकल्याणक, (२) जन्मकल्याणक, (३) दीक्षाफल्याणक, (४) ज्ञानकल्याणक और (५) मोक्षकल्याणक । ये पांचों कल्याणक धर्म तीर्थकरों के ही होते हैं। उनका ही मानव-जन्म धन्य है ।। ६-१० ।।
वीर प्रभ को केवलज्ञान प्राप्त हो चुका है, इन्द्रों ने जब ऐसा जाना तो वे सब के सब एकत्रित होकर क्षण भर में वहां उपस्थित हो गये ॥११॥
शक्र ने उसी समय अपने कोषाधिपति कुबेर को बुलाकर प्रादेश दिया कि तुम एक सुरम्य विस्तृत सभामण्डप की रचना करो। इन्द्र की आज्ञा को शिरोधार्य कर कुबेर ने उसी समय बारह कोठों से युक्त सभामण्डप तैयार कर दिया ।। १२ ।।