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वर्धमानचम्पू :
पराभिधाना गन्धकुटी निर्मिता । तस्या उपरि विविधमणिभिनि चितमेकं सिंहासनं तदुपरिमध्ये व पुष्करमेकं विनिमितम् । गन्धकुटीम मितो द्वावशसंख्याका विशालप्रकोष्ठा प्रासन् । येषु प्रभोरुपवेशश्रोतॄणां देवदेवीमारीसाधु-साध्वी- पशुपक्यादीनामुपवेशनार्थं समुचिता व्यवस्था कृताऽऽसीत् । तथैतदतिरिक्तानामागन्तुकजीवानां सुविधाकृतेऽन्यान्यपि समुचितानि स्थानानि साधनानि च तस्मिन् समवशरणे विरचितान्यासन् । श्रासीच्च मध्ययतिन्यास्तस्था गंधकुटिन्या उपरि संस्थापिले र्यासने प्रभोर्महावीरस्य तीर्थकर्तुरुपदेशनाथं वरिष्ठा व्यवस्था येन तस्योपदेश: श्रोतृभि । सुखं सुखेनाधिगतो भवेत् ।
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निवढ्य तीर्थंकर नामकर्म गवाsथ वैमानिकदेवलोकम् । तत्रस्य भोगानुपश्य पश्चास्युत्वा ततो ये ऽत्र सम्भवति ॥ ६ ॥
भवन्ति तेषां नियमेन पंच कल्याणकानीह सुरेख बुन्वैः । संपावितान्युत्तमपुण्य राशेविशिष्ट माहात्म्य निवेदकानि ॥ ७ ॥ — युग्मम्
कुटी भी है । उसके ऊपर महारत्नों से खचित एक सिंहासन था । सिंहासन के ऊपर एक कमल बना था। गन्धकुटी के चारों ओर १२ विशाल प्रकोष्ठ थे। जिनमें प्रभु के उपदेश को सुननेवाले देव-देवी, नर-नारी, साधु-साध्वी एवं पशु-पक्षी आदि के बैठने की समुचित व्यवस्था थी । इनके अतिरिक्त और भी आगन्तुक जीवों की सुविधा के लिए अन्य अन्य समुचित स्थानों की, साधनों की समुचित व्यवस्था यहां की गई थी । समवशरण के ठीक मध्य भाग में वर्तमान उस गन्धकुटी के ऊपर एक सिंहासन स्थापित था। उस पर प्रभु वीर के बैठने को सुन्दर व्यवस्था थी जिससे उनका धर्मोपदेश श्रोतागण अच्छी तरह सुन सकें ।
तीर्थंकर नामकर्म का बंध करके जो वैमानिक देवलोक में उत्पन्न होते हैं उनके नियम से पांच कल्याणक होते हैं। ये पांच कल्याणक देवेन्द्रों द्वारा संपादित होते हैं । इनसे पुण्यराशि का विशिष्ट माहात्म्य जाना जाता है ।। ६-७ ।।