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वर्धमानचम्यू:
185 तदनन्तरं तेन मनोमन्दिरमध्यस्थानमलभमानेनामवानादसंदोहेन पुलकितगात्रः स समवशरणस्य समुचिसत्यवस्थामकार्षीत् । प्रासीत्तत्र समवशरणे महान् न्यक्कतरविरश्मिभास्वरप्रभामण्डलः प्रकाशपंजः । जनरतस्तत्र संस्थितः प्राणिभिनिशातदवसानयो दो विज्ञातो न भवति स्म। सर्वोत्कृष्टा शान्तिस्तत्राशान्तः कारणाभावादासीत् । भ्रान्तिः क्लान्तिर्वा कस्याप्यसुमतः स्वान्ते नाजायत । तत्रागलानां सर्वेषां प्राणिनां चित्ते वैर-कलह-विद्वेष क्रोध-जिघांसास्वरूपाः परिणामाः स्वप्नेऽपि नैवाजागरिषः । अतस्तत्रैकस्मिन्नेष प्रकोष्ठे जन्मजातानि वैराणि त्वक्त्वा सर्वे जीवाः तिष्ठन्ति स्म ।
इसके बाद हृदय-मन्दिर के अन्दर नहीं समाये हुए हर्षोत्कर्ष से जिसका सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो रहा है ऐसे उस इन्द्र ने उस समवशरण की पूर्ण रूप से समुचित व्यवस्था की । समवशरण में महान् प्रकाश ही प्रकाश था इसलिए वहां उपस्थित प्राणियों को दिन और रात्रि का भेद ज्ञात नहीं होता था । अशान्ति के कारणों का अभाव होने के कारण वहां शान्ति का ही एकच्छत्र साम्राज्य था । भ्रान्ति एवं क्लान्ति वहां उपस्थित मनुष्यों आदि में देखने में नहीं पाती थी । वहां वर, कलह, विद्वेष, क्रोध एवं हिंसा के परिणाम भी नहीं होते थे । इसलिए वहाँ जन्मजात वर-भाव को छोड़कर एक ही कोठे में सिंह गाय, व्याघ्र मृग, मार्जार मूषक, सर्प और नकुल आदि जानवर परम प्रीतिभाव के साथ निर्भय होकर सन्त पुरुषों की तरह एक ही साथ बैठे रहते हैं ।
उस समवशरण में जो असख्यात-अपार भव्य समूह तीर्थकर भगवान महावीर की दिव्यदेशना सुनने के लिए बड़ी उत्कंठा एवं प्रवल उत्साह के साथ आया था बह प्रभु की वाणी-ध्वनि-कब खिरती है इस प्राशा से वहां अपने-अपने स्थान पर बैठा रहा ।