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वर्धमानचम्पूः इत्थं मन्यत्टीमध्यसमिसिहासमाधार विराजमान पूर्वाचलशिखरोपरि समारूढं दिनमणिमिय भगवन्तं महावीरं पञ्चच्चामरनिकर-- धोज्यमानं संस्तुत्य प्रणम्य समय॑ च पराकाष्ठामापनया भक्त्या भरितान्तःकरणेन करकुशेशययुगलं संयोज्य तेन पुनरपि निवेवितम्
स्वामिस्तेऽस्ति प्रबलमहिमा ह्यन्यथा सिंहगावी,
मारिराखू शुनकहरिणावेककोष्ठे कथं वा । संतिष्ठेसे प्रकृतिजनितं वैरभावं विहाय,
प्रत्यासत्ति यदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेसुः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार गन्धकुटी के मध्य में रखे हुए समृद्ध सिंहासन पर विराजमान भगवान महावीर को जो ऐसे प्रतीत होते थे मानो पूर्वाचल की चोटी पर विराजमान सूर्यबिम्ब ही हो, स्तुति करके और उनको नमस्कार करके इन्द्र अधिक से अधिक आनन्दित हुआ । उस समय भक्त देवगण प्रभु वीर के ऊपर चंवर ढोर रहे थे । इन्द्र ने प्रभु की पूजा की और भक्ति के अतिशय से जिसका अन्तःकरण ओत-प्रोत हो रहा है ऐसे उस इन्द्र ने पुनः दोनों करकमलों को जोड़कर इस प्रकार कहा---
हे नाथ ! पापका यह अपूर्व प्रभाव है जो अपने जन्मजात वैरभाव का परित्याग कर एक ही प्रकोष्ठ में सिंह और गाय, बिल्ली और चूहा, कुत्ता और हरिण शान्तिपूर्वक बैठे हुए हैं । यदि ऐसा न होता तो ये सब आपस में परमप्रीतिपूर्वक कैसे बैठते ? ।। ३६ ।।