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पमानचम्पूः
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तत्पश्चात् तु कुमारोऽसौ न पुनयिवाहकृते सङ्केतभाषयाऽपि ताभ्यामुक्तः प्रेरितश्चेति ।
तीर्थकरवर्धमानकुमारस्य जनक: सिद्धार्थः कुण्डनपुरस्य शासकस्सन्मातामहश्च चेटको नृपतिर्वैशालिगणतन्त्रस्य प्रमुखो नायकोऽनेकेषां क्षितीश्वराणामधिपतिश्चासीत् । अतः सर्वाणि राज्यसुखानि वर्धमानकुमारेण प्राप्तान्यासन्, न कस्यापि वस्तुनोऽल्पीयानप्यभावस्तस्मै कृते तत्रासीत् । शारीरिक-मानसिकव्यथा-कथापि तत्राल्यानतोऽपि श्रोतुं सुलभाऽऽसीत् । भवेद् यदि स विवाहार्थो, तवा देवदुर्लभाभिः क्षितिपत्यास्मजाभिः साकं परिणयप्रस्तायं स्वीकृत्य स्वोद्वाहं च कारयित्वा तत्सुखमनुभूय कुण्डनपुराधिपतित्वसिंहासनमालंकृत्य क्षितिपतिएवं लभेत ।
' इसके बाद फिर उन्होंने कुमार से किसी भी तरह की संकेत भाषा
संक के द्वारा भी पुनः विवाह के लिए नहीं कहा और न उन्हें मजबूर ही 1. किया।
तीर्थकर वर्धमानकुमार के पिता सिद्धार्थ कुण्डनपुर के शासक थे और उनके नाना राजा चेदक वैशाली गणतन्त्र के प्रमुख नायक थे एवं अनेक राजाओं के अधिपति भी थे । इस दृष्टि से वर्धमानकुमार को सब सुख प्राप्त थे । उनके पास किसी भी वस्तु को थोड़ी सी भी कमी नहीं थी । न कोई शारीरिक कष्ट था और न कोई चिन्ता । सब प्रकार से राजपुत्र होने के कारण बीसों अंगुलियां घृत में थीं । यदि वे विशह करना चाहते तो देवलोक में भी दुर्लभ रूपवाली राजकन्याओं के साथ परिणय का प्रस्ताव स्वीकार कर लेते और अपना विवाह करवाकर बैवाहिक सुख भोगकर एवं कुण्डनपुर के नरेश बनकर क्षितिपति पद को प्राप्त कर लेते । परन्तु इन