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वर्धमानचम्पूः
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इत्थं वर्धमानकुमारेण निगदितां वाणीं निशम्य पितृभ्यां विचारितंवर्धमानोऽयं सुकुमारः कुमारो यद्यप्यस्त्यस्मदीयः पुत्रः अस्मदपेक्षया च वयसि लघीयान् तथापि स्वाचारविचारे ज्ञाने चावामतिशेते । अतोऽस्मै हिताहितयोः कर्तव्या कर्तव्योरुपदेशनिर्देशो न शोभते । सूर्याय प्रदीपप्रदर्शनमिव । रविर्यथा स्वयं प्रकाशशीलस्तथैवायमपि विवेकसुपुब्जः । प्रतोऽस्मै शिक्षाकरणं जलेसलिलवर्षणमिव व्यर्थम् । श्रयं तु स्वयमेव farars शिक्षको नास्य कश्चिदपि शिक्षाप्रदाता । श्रतो धमुद्देशमुद्दिम्यायं जगति समवतीर्णस्तमुद्देश्य मेवायं सुखेन साधयतु । श्रावाभ्यामस्मिन् पवित्रतमेऽस्य सुकायें प्रतिपन्थिभ्यां न शव्यम् । एवं संप्रधार्यं ताभ्यां स्वपरात्मकल्याण विधायिन्या दीक्षाया श्राज्ञा दत्ता । उक्तं च- _fa! साध्य साधयेप्सितं न वयं स्मस्तव मार्गरोधकाः " । तदनन्तरं कलिङ्गदेशनरेशस्थ जितशत्रोर्वर्धमानकुमारेण सत्रा यशोदाया वैवाहिक प्रस्तावोsaोकारोक्तया निषिद्धः ।
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वर्धमान कुमार ने जब ऐसा कहा तो सुनकर माता-पिता ने सोचा कि यद्यपि यह वर्धमानकुमार सुकुमार है और लौकिक दृष्टि से मेरा पुत्र है अतः इस दृष्टि से तो हम लोगों की अपेक्षा वय में लघु है, किन्तु अपने प्राचार-विचार से एवं ज्ञान से हम सब से ज्येष्ठ है इसलिए इसे हिल और अहित का कर्तव्य और अकर्तव्य का उपदेश देना हम लोगों को शोभा नहीं देता । वह तो सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा । सूर्य जिस प्रकार स्वयं प्रकाशशील हैं, उसी प्रकार यह भी विवेक का सुपुञ्ज है, अतः इसे शिक्षा देना जल में जल-वर्षण के जैसा निरर्थक ही है । यह तो स्वतः ही विश्व का शिक्षक है । इसे शिक्षा देनेवाला इस समय यहां कोई और दूसरा नहीं है । इसलिए जिस उद्देश्य को लेकर यह यहाँ अवतरित हुआ है उस उद्देश्य को यह सुखपूर्वक सिद्ध करे । इस विषय में हम किसी भी तरह से इनके विरोधी नहीं होना चाहते । ऐसा निश्चय करके उन्होंने वर्धमानकुमार को स्व-पर हितसाधक दीक्षा की अनुमति दे दी और ऐसा कहा" आप अपना अभिलपित सफल करें हम आपके मार्ग में बाधक नहीं हैं ।" इसके बाद उन्होंने कलिङ्ग देशाधिपति द्वारा भेजे गये वर्धमानकुमार के साथ यशोदा के विवाह का प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया ।.