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वर्धमानचम्पूः
अथवा---
येनापूर्वमहौजसाऽतितरसा रागे प्रहारः कृतः, 'चित्रं वाऽपि किमन मे च भवताद् यद्दुर्दशाऽपीवृशी । इत्येवं सहसा विचिन्त्य भवतो निवेदिनो वेदिनो, वीराद् रागसखी व्यवाहमुखताभस्माद् तमिषु ॥ ७ ॥ श्रीवर्धमान कुमारेण तातं प्रतीवमप्युक्तम् - यथा—
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दृष्ट्वा रुद्धान् हरिरानिवहान् जातवंशग्यरङ्गः, प्राक्यं राज्यं परिणयविधि चोग्रसेनात्मजरं च । त्यक्त्वा स्वीयां जनकअननों, मुक्तिकामस्तपस्यां,
नेमिश्चक्रेऽहमपि च तथा तां करिष्यामि तात ॥ ८ ॥ द्रव्यात्मना नास्ति च कोऽपि कस्य संबंधबन्धेन जनो निबद्धः । पर्यायदृष्ट्यैव च तात- पुत्राः संबंधिनोऽमोह भवन्ति जीवाः ॥ ६ ॥
अथवा पूर्वज के धनी जिस वर्धमानकुमार ने मेरे प्रियसखा राग की ही जब दुर्दशा कर डाली है तो इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि मेरी भी उसी प्रकार से बे दुर्दशा कर डालेंगे । सो ऐसे ही विचार से वह कामदेव भव से विरक्त हुए श्रात्मवेदी उन वर्धमानकुमार के पास फटका तक नहीं, किन्तु रागियों के पास ही रह गया ॥ ७ ॥
श्रीवर्धमान ने पिताश्री से यह भी कहा
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जिस प्रकार नेमिनाथ भगवान् ने बाड़े में रोके गये हरिणों की करुण पुकार सुनकर अपना वैवाहिक सम्बन्ध छोड़ दिया, राज्यसिहासन का परित्याग कर दिया, उग्रसेन नरेश की लाड़ली बेटी राजीमती का और माता-पिता श्रादि इष्ट पारिवारिकजनों का मोह छोड़ दिया एवं दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली, उसी तरह हे तात! मैं भी दीक्षा ङ्गीकार करूंगा || ८ ||
जब द्रव्य दृष्टि से विचार किया जाता है तो ये पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध बनते ही नहीं हैं । ये तो सब पर्याय दृष्टि का ही विलास है-तमाशा है ।। ६ ।।