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वर्धमानवम्पू:
परन्त्येतेषु सांसारिक कृत्येष्वशरणेष्वशुभेष्वनियेष्वनात्मनौनेषु तस्य स्वभावत एवाभिरुचिर्नाऽभवत्, अतः स यथा सलिलस्थितं सरसिजं सलिलेनालिप्तं भवति तथैव मनसा वाचा कर्मणाऽपि ब्रह्मचर्यव्रतरतोऽसौ सर्वसुखसाधनसम्पन्नोऽपि समीहापूतिपूरकपदार्थसंभृते राजभवने निवसन्नपि सांसारिकमोहमायाभिनिलिप्तोऽभवत् ।
धन्या सा जननी पिताऽपि सुकृती गेह च तत्पावनम्, धन्या सा घटिका रसाऽपि महिता तवासरो वा महान् । धन्यः श्रेष्ठतमः क्षणः स विभुना यो जन्मनाऽलंकृतः, श्रीतीर्थकरनामकर्मदघता बीरेण कर्मारिणा ॥ १० ॥ धन्यास्ते जगतीतले नरवरा येऽन्यस्य दुःखेन बै, पायंत व्यथिता "समस्त मयि तद्" बुद्ध्वेति तद्धानये। स्वीयं सर्वसुखं विहाय नितरां चेष्टन्त इत्थं च ते, देवा एव च मानवतनौ सर्वत्र लब्धावरः ॥११॥
सांसारिक अशरणभूत, अशुभ, अनित्य और अनात्मनोन कार्यों में उनकी स्वभावतः रंचमात्र भी अभिरुचि नहीं थी। इसलिये वे जल में रहते हुए भी उससे अलिप्त कमल की तरह मन से, वचन से एवं काय से ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए सर्वसुख साधन सम्पन्न होते हुए प्रत्येक इच्छा की पूतिपरक राजमहल में निवास करते हुए भी वहां की किसी भी वस्तु से इन्हें माया-मोह नहीं था।
वह माता धन्य है, वह पिता भी भाग्यशाली है, वह घर भी पवित्र है, बह घड़ी भी सर्वोत्तम है, वह भूमि पूज्य है, वह दिवस भी महान् है, वह क्षण भी सबसे श्रेष्ठ है कि जो कर्म शत्रु के प्रवल बैरो भगवान् महावीर के जन्ममंगल से अलंकृत हुआ है मंगलमय हुआ है ।। १० ।।
संसार में उन नर रत्नों का जन्मधन्य है जो दूसरों के दुःखों को अपना ही दुःख मानते हैं एवं उनके दु:खों को दूर करने के लिए अपने सुखों को छोड़ देते हैं । ऐसे वे मानव-तिलक मानव शरीर में देवरूप ही होते हैं । संसार उनका स्वागत अपने पलक-पांवडे बिछाकर करता