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वर्धमान चम्पूः
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यथा सुवर्ण पुटपाकयोगाद्विनिर्मलं सल्लभते प्रतिष्ठाम् । तथैव कैवल्यकृतेऽयमात्मा तपोऽग्निना शुद्ध्यति तीव्रभासा ।। १२ ॥
मुमुक्षुभिस्तीव्रतमातपेन तपोऽग्निनात्मा परिशोधनीयः । इत्थं विश्व स बोरवीरो विहाय राज्यं सुतपांसि तेथे ॥ १३ ॥
अखण्ड ब्रह्मचर्यवतरेपगूहितोऽयं तत्र राज्यभवने द्वादशदिवसोपेताष्टमासाधिकाष्टाष्टाविंशतिवर्षाणि यावदवास ।
सम्यग्दर्शन-बोध- वृत्तमतुलं
संधारयश्वावरात्
स्वस्थानोचितसद्गुणैश्च विविधैः स्वं मोदतो वासयन् । वराग्योद्भवकारकहितव हैनित्यं वचोभिः श्रितः,
स श्रीमत्रिशलात्मजो भवतु मे मोहान्धकारापहः ।। १४ ।।
जैसे सुवर्ण पुटपाक के योग से निर्मल बनकर प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है, उसी प्रकार यह श्रात्मा भी तपरूपी श्रग्नि के द्वारा शुद्ध होकर कैवल्यरूप जो अपना स्वभाव है उसे प्राप्त कर लेता है ।। १२ ।।
"मुमुक्षुजीव का यह कर्तव्य है कि वह तीव्रतम श्रातापवाली तपस्यारूपी अग्नि के द्वारा अपने आपका संशोधन करे" ऐसा विचार करके ही वीराग्रणी वर्धमान कुमार ने राज्य का परित्याग कर अनेक तपों को तपादिगम्बरी दीक्षा अंगीकृत की ।। १३ ॥
श्रखण्डब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वर्धमानकुमार राजभवन में ८ माह १२ दिन अधिक २८ वर्ष तक रहे ।
निर्दोषरीति से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का श्रादरपूर्वक पालन करते हुए त्रिशला के लाल ने त्याग, तपस्या के लायक अनेक सद्गुणों से अपने आपको वासित किया एवं हितकारक ऐसी वैराग्यवर्धक दिव्यध्वनि से जिसने जीवों को सम्बोधित किया ऐसे वे त्रिशला के प्यारे पुत्र मेरे मोहान्धकार को नाश करनेवाले हों ॥। १४ ॥