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वर्षमानचम्पूः
ध्यथां स्वकीयां च तृणाय मत्वा मधंनेऽभून्महती विवग्धा । वयावती सा जननी मदीया दिवंगतां तां प्रणमामि नित्यम् ॥ १५ ॥
इत्यं महेशजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन्,
श्रीमूलचन्द्रविदुषा मनवाषरेण । तुर्यों गतः स्तवन पथ मनोभु स्याल,
स्वर्ग गतस्य जननीजनकस्य तावत् ॥
चतुर्थः स्तवकः समाप्तः
जिस दयालु माता ने मेरा पालन-पोषण बड़ी सावधानी से किया उस दिवंगत माता को मैं सर्वदा नमस्कार करता हूं ।। १५ ॥
चतुर्थ पुत्र महेश के पिता एवं मनवादेवी के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा निर्मित इस वर्धमानचम्पू नामक प्रबन्ध में यह चतुर्थ स्तबक समाप्त हुआ।