________________
पंचमः स्तबकः
संसाराद्विरक्तिः
संसारे भ्रमता मया बहुविधा एकेन्द्रियरचा भवाः, प्राप्तास्तेषु न कुत्रचिन्ध समभूत् स्वोत्थानभावोद्गतिः । प्राप्तेऽस्मिश्च विमुक्तिदायकपदे में साऽधुनाऽजायत,
सेव्यस्तहि न जायते क्षणमपिं द्वेष्यः प्रमादोऽत्र मे ॥ १ ॥
संसारोऽयं विविधविधया संभृतो दृश्यतेऽत्र,
स्वष्टानां हा ! समयसमये दिप्रयोगः पुरस्तात् । संयोगश्च प्रतिपल मिहानिष्ट जीवेन सार्धम्, नैराकुत्थं कथमिव भवेत् संसुतौ मानवानाम् ॥ २ ॥
पंचम स्तबक
संसार से वैराग्य
संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने अनेक प्रकार की एकेन्द्रियादिक पर्यायों को धारण किया है। उन पर्यायों में से किसी भी पर्याय में "मैं अपना उद्धार करूँ" ऐसा भाव जागृत नहीं हुआ । अब मुझे पूर्णरूप से आत्मशोधन जिसमें हो सकता है ऐसी यह मानव पर्याय प्राप्त हुई है अतः आत्मसाधना करने में मुझे एक क्षण का भी शत्रु रूप प्रमाद नहीं करना चाहिए ।। १ ।।
यह संसार अनेक प्रकार की घटनाओं से भरा हुआ है। देखीवियोग और अनिष्ट का संयोग परिणति में निराकुलता कैसे
समय समय पर यहां देखते-देखते इष्ट का होता रहता है अतः संसारी मानवों की ा सकती है ? ।। २॥
13