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वर्धमानचम्मूः माता मृत्वा भवति भगिनी सापि पुत्री सुतापि,
मृत्वा पौत्री भवति भवने पर्यये न स्थिरत्वम् । नानायोनावहमपि तथाऽनादिकालाभ्रमन् सन्,
संप्राप्तोऽत्र प्रयलसुकृतान प्रमावो विधेयः ॥३॥
इत्थं देशावधिना विमश्य बोरो बभूव निविण्णः । संसृतिभोगतनुभ्यो वियरिने महोत्साहः ॥ ४ ॥
प्रथान्येधुर्वर्धमानस्य स्वभवने सुखासीनस्य सहसा स्वीयपूर्वभवस्य संस्मरणं संजातम् । तवाऽस्य चेतसि विज्ञानमीवृशं समुत्पन्नं, यवहं पूर्वभवे द्वाविंशत्यधिप्रमाणायुष्कोऽच्युतदेवलोकाधिपतिरिन्द्र प्रासम् । तत्र
यहां तो माला मरकर भगिनी, भगिनी मरकर पुत्री, और पुत्री मरकर पौत्री हो जाती है । इस तरह कोई भी सांसारिक पर्याय एक रूप में स्थिर नहीं रहती है । अनादिकाल से मैं भी नाना पर्यायों में जन्ममरण करता हुआ किसी प्रबल पुण्य के उदय से इस मानब पर्याय में पाया हूं अतः अात्मसाधना में प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं है ।।३।।
इस प्रकार जन्मजन्य देशावधि ज्ञान के द्वारा विचारकर वर्धमानकुमार संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गये तथा कर्मरूप शत्रुओं को विनष्ट करने के निमित्त उनमें प्रबल उत्साह बढ़ गया ॥ ४ ॥
एक दिन की बात है जबकि वे अपने भवन में सुखशान्ति में मग्न हुए विराजमान थे, सहसा उन्हें अपने पूर्वभव स्मृत हो पाये । उससे उन्हें यह जानने में देर नहीं लगी कि मैं पूर्वभव में २२ सागर की आयुवाला अच्युत स्वर्ग का इन्द्र था। वहां मैंने जीवन पर्यन्त दिव्य भोगोपभोगों को,