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वमानपम्पू:
109 मया यावज्जीव दिव्या नरभवदुर्लभा विविधा भोगोपमोगा मुक्ताः । इतः पूर्व संधमाराधनाया बलेन मया तीर्थकरनामकर्म निबद्धम् । अस्मिन्नुपात भवेऽस्योदयो भवितुमर्हः । अधुना विवेकबोधविश्लवा जना कुष्कृस्यामाममाचाराणां पुष्कलानां प्रचार प्रसार व कुर्वन्त इतस्ततो भ्रमन्सो दरोदृश्याते । अतस्तेषां निरसनं परमावश्यकम् । यावदहं संपमं न ग्रहीष्यामि तावन्मे न भविष्यात्मशोधनम् । अतस्तस्माइते कथमहं रागद्वेषविहीनः सन् ज्ञाता द्रष्टा स्यामस्मात्कारणात्पूर्णशुद्धत्व बुद्धत्वाप्य मया यसनीयमिति ।
विश्वकल्याणकामनया प्रेरितान्तःकरणेन मया मोहममतापङ्काउहिनिर्गत्यात्मस्वरूपो धर्मोनूनमाराधनीयस्तदेवात्मस्वरूपविकसितो मे कर्ममलापगमा भवेत् ।
जो इस मानव पर्याय में सर्वथा दुर्लभ हैं, भोगा है । इसके पहिले मैंने संयम की अाराधना की थी। उसके प्रभाव से मुझे तीर्थकर नामकम की प्रकृति का बंध हो गया था । अब इस वर्तमान भव में उसका उदय होनेवाला है। इस समय जो जन विवेक से विहीन होकर अपार दुष्कृत्यों एवं अनाचारों के प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं, उन्हें इन कुकृत्यों से रोकना परमावश्यक है । जब तक में संयम ग्रहण नहीं करूँगा, तब तक मेरी आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकेगी और उसके बिना राग-द्वेष विहीन नहीं हो सकेगा। इसके विना शाता-द्रष्टा नहीं हो सकता । अतः पूर्ण शुद्ध-बुद्ध अवस्था की प्राप्ति के लिए मुझे प्रयत्न करना चाहिये। . .