________________
110
बर्धमानबम्पूः - इस्थं विचिन्तयतो वर्धमानस्यान्तःकरणे राज्यादिको निखिला विमूर्ति तृणाय मन्यमानस्य सर्वथा मुक्तिकमनीयकान्ता दूतीभूतो वैराग्योजिनि । सत्यं--वैराग्यमन्तरेण कर्मणां प्रक्षयो नैव भवितुमर्हः । प्राबाधाकालमतिकम्योदयागतेषु कर्मसु जीवानामवस्थासु विविधं वैचित्र्यमित्थं जायमानं समवलोक्यते।
प्रातर्यत्र मृदंगनादनिवर्हनोंतो महानुत्सवः,
सायं तत्र हहामहारवयुतं संधूयते वन्दनम् । क्वाप्यास्से नयनाभिरामतरुणांनी गानभानन्दधम्,
क्वाप्यास्ते शवदर्शनं पितृवने वंदह्यमानं हहा ! ॥५॥
इस प्रकार विचारधारा में निमग्न बर्धमानकुमार के अन्तःकरण में जो कि बाह्य विभूति रूप राज्य प्रादि को तृण के समान निःसार मान रहे थे सर्व प्रकार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। यह बैराग्य ही मुक्ति रूपी कमनीय कान्ता का स्वामी बनाने में दूती का काम करता है । यह सत्य है कि कर्मों का क्षय करानेवाला यदि कोई साधन है तो वह वैराग्य ही है। याबाधाकाल के बंधे हुए कर्म जब उदय में आते हैं तब जीवों की प्रवस्थाओं में विचित्र प्रकार का परिवर्तन इस प्रकार से होता हुआ देखा जाता है
प्रातःकाल जहां गाजेबाजों की गड़गड़ाहट के साथ अनेक उत्सव हुए थे, हम देखते हैं कि सायंकाल वहीं पर प्रातध्वनि के साथ रोना धोना मचा हुआ है। कहीं पर सौन्दर्य विभूषित ललनाओं के मधुर गीत सुनाई देते हैं, तो कहीं पर घमसान में जलते हुए मुर्दे देखने में आते हैं ।। ५ ।।