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वर्षमानवम्पूः
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श्वानः कुत्र च भक्षयन्ति विविधं मिष्ठान्नदुग्धाविकम्,
केचिद्दोनजनाः स्वपन्ति निशि चक्षुत्क्षामकंठोवराः । केचित्षड्रसभोजनानि मुवित्ता नित्यं लभन्ते नराः,
कृत्वाऽपोहपरिश्रमं न लभते पर्याप्तमन्नं जनः ॥६॥
हसासी महानि केऽपि वस्नेतर्याणि नित्यं जनाः,
जीर्णान्यऽप्यपरे न शीतसमये संप्राप्नुवन्त्यंगिनः । केचिच्छोलविभूषिता अपि सदा सीदन्ति वामे विधौ,
पापासक्तधियोऽपि केऽपि सततं देवप्रिया मोदिनः ॥७॥
यत्रासननिशं मुवंगनावनिबह ध्यानैरनेकोत्सवाः,
रम्यस्त्रीकरपल्लवमणिमयी रङ्गावलिः कल्पिता । वैवे हा! प्रतिकूलतामुपगते ध्वस्ता नभः स्पशिणः,
हस्तेि ऽपिमहीक्षितां शिवरवस्तत्रावनौ श्रूयते ॥ ८ ॥
कहीं पर कुत्तों को दूधमलाई के लड्डू खिलाये जाते हैं तो कहीं पर दीनहीन मानव भूखे पेट रहकर विकल होते रहते हैं । कहीं पर कितने ही मानव षडरसमिश्रित भोजन करते हैं तो कहीं पर पूर्ण परिश्रम करके भी कितने हो मानव पर्याप्त भोजन प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।। ६ ।।
कितने ही मानव यहां ऐसे भी हैं जो प्रतिदिन बेशकीमती नबीननवीन वस्त्र पहिनते हैं और कितने ही ऐसे भी हैं कि जिन्हें शीतकाल में भी जीर्ण-शीर्ण वस्त्र नहीं मिलते । कितने ही शीलशिरोमणि जन ऐसे भी देखने में पाते हैं जो रात-दिन दुःखित रहते हैं और कितने ही पापी जन देव की अनुकुलता से मौजमजा उड़ाते हुए देखे जाते हैं ।। ७ ।।
जिन राजमहलों में हमेशा चौघड़िया बजा करता था, मनोमुग्धकारिणी सुन्दरियां मणियों के चौक पूरा करती थीं, जब वहां देव की अकृपा बरसी तब वे नभस्तलस्पर्शी राजमहल जमींदोज हो ममे और अब उनमें केवल भूगालों की ध्वनियां ही सुनाई देती हैं ॥ ८ ॥