________________
12
वर्धमानपम्पूः लक्ष्मी व ललनेव पावयुगयोः संवाहन सादरम् ।
कृत्वा नृत्यति तस्य तस्य पुरतो यस्यानुकूलो विधिः । किचात्येवमोग्यसौख्यपतनं दोन संपले.
यस्योपर्य निशं सरोजसदृशो दृष्टिप्रसारो विधेः ॥ ९॥
विव्यस्त्रोनयनावलीभिरभिताः संबोक्षिता मुंजते,
सौख्यानीह सुदुल मानि कृतिनः केचिद् यथेच्छ नराः। केचिद्वामविधौ विनय वनिता तान्ताः सदा दुःखिनः,
वैक्लव्यं कलयन्ति हा ! पररमासंवीक्षणरात्मनि ॥ १० ॥
तल्पस्था नपि केऽपि देवदयया नित्यं प्रमोदान्तिाः ,
निद्रव्याश्च तदीयदृष्ट्यपथिका उद्योगिनो दुःस्थिताः । गुण्यप्राव अपि मानवा विधिदशानिर्वाह चिन्ताजिताः,
जायन्ते, ननु केऽपि निर्गुणजना मित्योत्सवा नंदिनः ।।११।।
भाग्य जिनके अनुकूल होता है उनके दोनों चरणों की सेवा ललना जैसी बनकर लक्ष्मी बड़े प्रादर के साथ करती है । वह उनके समक्ष नाचती रहती है। अधिक क्या कहा जावे-सांसारिक जितने भी सुख हैं वे उसी जीव को प्राप्त होते हैं जिसके ऊपर भाग्य की कमल जैसी कोमल दृष्टि है ।।
जिसके ऊपर देव की दया होती है, ऐसा भाग्यशाली मानव ही संसार के देव-दुर्लभ सुखों को इच्छानुसार भोगता है और जिसका देव अनुकूल नहीं होता वे धर्मपत्नी के बिना दुःखित होते रहते हैं और पर पत्नी को देखदेखकर अपने पाप में दुविचारों से विकल होते रहते हैं ।।१०।।
जिनके ऊपर देव की परम कृपा बरसती रहती है, वे बिना किसी परिश्रम के भी पलंग पर बैठे चैन की बंशी बजाया करते हैं । जो व्यक्ति इसकी कृपा से वञ्चित होते हैं वे परिश्रम करते हुए भी लाभ से विहीन रहते हैं । उनका जोवन दुःखमय बना रहता है । भले ही वे गुणियों में भी श्रेष्ठ हों पर उन्हें पेट भरने के भी लाले पड़े रहते हैं । देव की अनुकूलता में निर्गुण जन भी सदा निराले ठाट बाट वाले देखे जाते हैं ॥ ११ ॥