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वर्धमानखम्पूः
शिष्टायते यत्कृपया sध्यशिष्टः शिष्टोऽपि वा यत्प्रतिकूलतायाम् । श्रशिष्टवद्भाति विधेः प्रभावो ह्यचिन्तनीयोऽस्ति विचिन्तयन्तु ।। १२ ।।
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केचित्पुत्रविहीनाः संक्लिष्टाः सन्ति, केऽपि तत्सहिताः । मृस्यौ तस्य च केचित् केचिद्नुर्षु सितस्तस्य ॥ १३ ॥
वैराग्योद्भूत्यनन्तरमेव सकलश शिविम्यामवदना एकलवावतारिणो ब्रह्मलोकान्तनिवासिनो बालब्रह्मचारिणो निलिम्पा लौकान्तिकास्तनिकटे समावि भूताः । विततहर्षोत्कर्षनद्धान्तराः प्रोचुस्ते वर्धमानवंराग्यशालिनं वर्धमानं भगवन् !
पुण्यरूप देव की महरबानी से प्रशिष्ट भी शिष्ट और शिष्ट भी अशिष्ट बन जाया करता है । सच है विधि का प्रभाव अचिन्त्य है || १२ ||
संसार की गति ही बड़ी विचित्र है, देखो ! कोई पुत्र नहीं है तो दुःखी है, कोई पुत्र है तो दुःखी है। कोई होकर उसके कालकवलित हो जाने पर दुःखी है, कोई उसके दुर्व्यवहार से दुःखी है ।। १३ ।।
अतः सांसारिक मार्ग में पतित जितने भी प्राणी हैं वे सब प्राकुलित हैं । निराकुलता एक क्षण की भी नहीं है। बिना निराकुल हुए श्रात्म-सुखशान्ति मिल नहीं सकती । इस प्रकार वैराग्य की जब प्रभु को उद्भूति हुई तो उसी समय ब्रह्मलोक के अन्त में रहनेवाले लोकान्तिक देव जो कि बाल ब्रह्मचारी होते हैं और मनुष्य का एक भव लेकर मोक्षगामी होते हैं महावीर प्रभु के निकट आये। इनका मुख मण्डल पूर्णमासी के चन्द्रमा के जैसा था । हर्षो में मग्न हुए इन्होंने प्रभु से इस प्रकार कहा