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वर्धमानचम्पूः
संसारेऽस्मिन् विषमविषमे भोगवाञ्छाग्निदग्धो,
जीवो दुःखी भवति नितरां भोग्यधाताप्यनाध्याम् । योनावस्थामविरतियुताय करोवाङ कुशेन,
होमस्तावद् भ्रमति विषयेष्विन्द्रियाणां यथेष्टम् ॥ १७ ॥
अतः
लप्स्ये कवा तद्दिवसं पवित्रम्,
कमप्रणाशं
मुबश्यङ्गनाया नरजन्म लब्ध्या । विरतिप्रभावाद्,
विधाय पाणिग्रहणं करिष्ये ।। १८ ।।
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पुण्यकर्मकृतं सौख्यं स्वर्गीयं नात्रवंचना । तथापि नास्ति तस्यिमाधेरेव विवर्धकम् ।। १६ ।।
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यह संसार प्रत्यन्त विषम है । भोग भोगने की इच्छारूप अग्नि से यह सदा जलता रहता है । संसारी जीव भोग्य वस्तु के बिनाश हो जाने पर अत्यन्त दुःखित होता रहता है । उसकी प्राप्ति के साधन जुटाने में, या उसकी प्राप्ति नहीं होने पर प्राकुल व्याकुल होता रहता है । जिस देवयोनि में मैं वर्तमान में हूं यह तो अविरति से युक्त है अतः यहां पर भी जीव निराकुल नहीं बन पाता है। यहां पर भी वह निरङ्कुश हाथी की तरह अपनी प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में इच्छानुसार चक्कर काटा करता है ।। १७ ।।
इसलिए ऐसा वह पवित्र दिन कब आवेगा जबकि मैं मनुष्य जन्म प्राप्त कर और उसमें विरति की भाराधना के प्रभाव से कर्मों को नाम करके मुक्तिरूपी अंगना का पाणिग्रहण करूंगा ? ॥ १८ ॥
यहां जो स्वर्गीय सुख मुझे प्राप्त हुआ है । वह पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त हुआ है यह सत्य है पर वह नित्य नहीं है, केवल मानसिक चिन्ता को ही बढ़ाने वाला है - एक दूसरे की विभूति को देखकर यहां भी देव क्रूरते रहते हैं ।। १६ ।।