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स्वर्गस्थस्तै विषयनिचये नथ ! नश्चितवृत्तिः, प्रस्ता, सेव्यां विरर्तिमधुना सेवितुं ह्यक्षमाः स्मः । स्वरसनिष्पाद्वयमपि विभो ! स्वावृशाः संभवेम,
वर्धमानम्पूः
प्रच्युत्वाऽहमाम्मनसि महती काममेधाऽस्ति सम्यक् ॥ १५ ॥
केनचित् कृतंवा कामना
बलेस्तापो जिनवर ! यथा कच्चलं स्वर्णवर्णम्, अन्तर्भूत्वा मलविरहितं सर्वशुद्धं स्वामिमेवं यदि मम मनोगेहमन्तर्गतः स्याः,
करोति ।
नूनं वितं भवति विमलं स्वद्गुणोद्गीतितापात् ॥ १६ ॥
हे नाथ ! स्वर्गीय विषय-भोगों से हमारी चित्तवृत्ति ग्रस्त रहती है । सेवन करने योग्य संयम हम लोग इसीलिए धारण नहीं कर पाते । अतः ऐसी कामना है कि यहां से जब च्युत हों तो मानव पर्याय पाकर श्रापके चरण सान्निध्य में रहकर आप जैसे बनें ।। १५ ।।
किसी ने ऐसी भावना की --
जिस प्रकार अग्नि मलिन सुवर्ण को निर्मल कर देती है उसी प्रकार हे नाथ ! प्रापका यदि मेरे मनोमन्दिर में निवास हो जाता है तो में भी निर्मल हो सकता हूं ।। १६ ।।