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वर्धमानवम्पू:
115 छ संभूय । खंडिताखंडितशर्करास्वायां लोकान्तकानां मधुरां गिरमिमा निशम्य वर्धमानस्य वैराग्यं संबद्धितं सत् दृढ़तरं जातम् । अतस्तत्क्षणमेव कुण्डनपुरस्थं नंद्यावाभिधान राजभवनं विहाय यनं पाहिलेषपूर्वरूपेण विनिश्चयो व्यधायि । यतस्तत्रैवैकान्से ममैकान्ततो भविष्यत्यास्मसाधनेति प्रबुद्ध्यव । दीक्षोन्मुखं स्वसुतं संवीक्ष्य नृपतिना सिद्धार्थेन तवा द्विजेभ्यः किमिच्छकं दानं प्रवत्तम् । तस्मिन्नेव काले संक्रन्दनस्य सिंहासन सकाम्पं जातम् । तदा तेन स्वाषधिज्ञानेन विज्ञातं यत्तीर्थकरस्य वर्धमानस्य
राग्यभावना दीक्षासंमुखा संवृता । अतस्तरकालमेवासी बन्दारकपन्नः हरितः परिवृतः सन् राजभवनस्य प्राङ्गणं समागतः । तत्र समागसेन तेन ने महान हर्षोत्सवः । हर्षोत्कर्षसमाकुले तस्मिन् समयेऽसुलभक्तिभावावनतरंग: सेन्त्रादिभिरिस्थं स्वस्वान्ते भावनाऽकारि--
है जिसके समक्ष मिश्री की मधुरिमा भी फीकी हो जाती है ऐसी मौकान्तिक देवों की माधुर्य गुणोपेत वाणी को सुनकर वर्धमान कुमार का विगत वैराग्य बढ़तर हो गया । वे उसी क्षण कुण्डनपुरस्थ नंद्यावर्त नामक राषभवम से बाहर निकले और तपोवन की ओर जाने को उद्यत हुए । होंने चित्त में ऐसा विचार किया तपोवन ही प्रात्म साधना का एक एकान्ततः साधनास्थल है अतः वहीं पर बिना किसी विघ्नबाधा के भात्मबना हो सकेगी।
सिद्धार्थ नरेश ने जब अपने पुत्र को दीक्षा ग्रह्ण करने के लिए कटिंबर देखा तो उन्होंने द्विजों को किमिच्छक दान दिया।
इसी समय इन्द्र का आसन कम्पित हुमा । सिहासन के कंपित होते अभी इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा जान लिया कि वर्धमानकुमार की भावना दीक्षा धारण करने की ओर आकृष्ट हो चुकी है । तब वह चारों पार से देवमण्डली से घिरा हया राजमहल के प्रांगण में प्राकर उपस्थित
गया । वहां पाते ही उसने सर्वप्रथम हर्षोत्सव करना प्रारम्भ किया । TA उत्सव में सम्मिलित हुए देवादिकों ने अतुल भक्ति से भरकर-विभोर होकर-ऐसी भावना अपने-अपने चित्त में की