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वर्धमानचम्पू:
प्रत्रत्यात्खलु सौख्यात् देवानां न जायते निराकुलता । सौख्यं नैराकुल्यं यथा भवेतया प्रयतितथ्यम् ॥ २० ॥
नरजन्मबद्धम्
ईदृविचारपरिपूरितमानसैस्तव व स्त्रिभागसमये केश्चिच्छ, सत्यमिदमस्ति भवेद्भवस्य प्रध्वंसिनी बलवती पलू भावनैषा
॥ २१ ॥
श्रथानन्तरमेतद्धसान्तेन परिचिता त्रिशला पुत्रस्नेहवशंगता विला जाता। विचारितं तथा-मदीयोऽयं सुकुमारोंगको राजभवने समुपस्तत्रैव संबद्धितस्तत्रैव लालितः पोषितश्च । हा! हन्त ! दिगम्बरो भूत्वा कथमयं शीतोष्णकालयोः शीतातपवाघां शक्ष्यति ? कथं asiafrat शिक्षा पततो नीहारबिन्दूत्करान् वक्ष्यति ? कथं वा
यहां के सुखों से देवों में निराकुलता नहीं था सकती, निराकुलता श्राये बिना सच्चा सुख होता नहीं है । इसलिए निराकुल सुख जैसे बने वैसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये || २० ॥
इस प्रकार के विचार कितने ही देवों के हुए। उन्होंने अपनी भुज्यमान श्रायु के विभाग में मनुष्य श्रायु का बंध कर लिया । यह बात हाच है- ऐसी बलवती भावना जीव के भव की जन्ममरणादि रूप संसार फ्री-माथ करनेवाली हो जाती है ।। २१ ॥
इसके बाद जब त्रिशला इस वृत्तान्त से परिचित हुई तब वह पुत्रस्नेह के अधीन होने के कारण विह्वल हो गई। उसने उस क्षण विचार कियामेरा यह पुत्र राजमहल में उत्पन्न हुआ है, अत्यन्त कोमल शरीरवाला है, राजमहल में ही पला- पुषा है, वहीं पर उसका लालन पालन हुआ हैं । हाय 1 नम होकर कैसे यह शीत, उष्ण की बाधा को सहन करेगा ? मस्तक पर वर्षा की बूंदों से रक्षा करने का कोई साधन इसके पास है नहीं । जब उपडी ठण्डी बर्फयुक्त प्रोले सहित बूँदें इसके मस्तक पर