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वर्धमानचम्मूः बनपर्वताना कंटकावलिसमाकोयो धरियो पादत्राणविहोनः पदन्यास विषास्यांत ! हा! हन्त ! हन्त ! क्वेर्द कठोरातिकठोरं सपश्चरम क्व चास्य मसणामिति चेतसि स्वकपोलकल्पनया जायमानों भावना विविधसंकल्पविकल्पस्वरूपा ममतापाशनिबद्धा संप्रधार्य मोहाधीता सती मूछिताऽभवत् । पाश्र्वयतिभिः पारिवारिकजनविहितशीतलोपचारावं यदा सुलब्धबोधा बभूव तदा पूर्वत एव समागतः सेन्द्ररिस्थमभाणि ।
चिन्ता कार्या जननि ! सुभगे ! न त्वया चास्य काचित् ।
अस्मिन् काले जगति न बली कोऽपि तुल्योऽस्त्यनेन । शकणासो सुरगिरिभुवि क्षीरपाथोधितोयः, सुस्नातोऽभूदचलिततिः सोऽत्र चिन्त्यं कथं स्यात् ।। २२ ॥
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पड़ेंगी तब उन्हें यह कैसे सहेगा ? पादचारी होने के कारण अब बिना उपानत् के यह चलेगा तन इसके पैरों में कांटे चुभेगे तो फिर यह वम पर्वत की कंडकाकीर्ष भूमि में कैसे चलेगा? हाय ! कहां लो मेरे लाल का अत्यन्त कोमल शरीर और कहां यह अति कठोर तपश्चरण ! इस प्रकार को अपनी ही कल्पना से उत्पन्न हुए मामा प्रकार के संकल्पों-विकल्पों को करती हुई वह त्रिशला माता मोहाधीन होकर उसी क्षण मूच्छित हो गई । उसे मुच्छित हुई देखकर पार्ववर्तीपारिवारिकजनों ने शीतलोपचारे करके उसे संचेत किया । सचेत होने पर पहिले से पाये हाए देवादिकों ने उसे यों समझाया
हे भाग्यशालिनी माता ! तुम इसे अपने पुत्र की दीक्षा के मांगलिक कार्य में चिन्तित मत बनी क्योंकि यह इस काल में बहत अधिक बलशाली है । इसके जैसा और कोई बली नहीं है । जब यह सुमेरु पर्वत पर शक के द्वारा किये गये क्षीरसागर के जल के अभिषेक के समय धैर्य गे विचलित नहीं हुया, तब यह प्रार्गत परीषहों एवं उपसर्गों से चलायमामै कैसे हों सकता है ? ।। २२ ।।