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वर्धमानबम्पू क्षणमपि बालस्यं चित्तेऽपि च कश्चितप्युद्धगो नाजनि । सर्वेषामसुमतास्याच्छ यः, कश्चिदपिवुःखभाग्न भवेदखिलानामनिशं नितरां सुखशान्तिवृद्धिर्भूयात् । समृध्यभावो न कस्यचिदपि मवेत् । पश्यन्तु सर्वे भद्राणि, भवन्तु सर्वे निरामयाः न जायतां स्वप्नेऽपि कस्यचिदिष्टविप्रयोगोऽनिष्ट संयोगो या । मनस्येवंविधा तस्या भावनाऽभवत् । सर्वकल्याणकामनाशालिन्या अस्था मृगाक्ष्या मुखं कदाधिवप्यपशग्दैः कच्चलं न जातम् । गर्मस्थाकप्रभावास्या अक्षणोविल्यमपि नागतम् ।
अस्या वतसे स्म हृदयेऽनुरागः, सर्वप्राणिनः प्रति मैत्रीमानः, गुणिजनेषु प्रमोदश्च । अन्तर्धत्नी यंन काचिदपि तदवस्थायामपि स्वीयधर्मकुत्येशिथिलावरा जाता। तदानी तहणेन्दुगौरवर्णा तामतान्सां मुहर्मुहनिरीक्ष्य संजातसुखो जज्ञे । अमन्यत च पुण्येन लब्धं स्वगृहस्थधर्मम् । शिरोषपुष्पावपि कोमलांग्यास्तस्याः स्फाटिकाश्मकान्त्याः कपोलपाल्या
नहीं आयी। आलस्य सदा दूर रहा 1 चित्त में किसी भी प्रकार का उद्वेग उत्पन्न नहीं हुआ । सदा उसके मन में यही भावना रहती कि संसार के सब प्राणी कल्याणभाजन बनें । कोई भी जीव दुःखी न रहे । समस्त जीवों में सुख, शान्ति एवं समृद्धि की वृद्धि होती रहे। किसी भी जीव को स्वप्न में भी इष्ट का वियोग और मनिष्ट का संयोग न हो | समस्त प्राणी निरामय रहें। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवों के कल्याण की कामनावाली त्रिशला का नेत्रयुग मृमके नेत्रयुग जैसा था, मुख अपशब्दों से कभी भी मलिन नहीं हमा । गर्भस्थ अभक बालक के प्रभाव से नयनों में उसके चपलता भी नहीं पायो । उसके हृदय में जीवों के प्रति अनुराग भरा रहा । मन में मंत्रीभाव एवं गुणिजनों को देखकर प्रमोदभाव जमा रहा । गर्भगत अर्भक के प्रभाव से ही वह कभी भी अपने धार्मिक कृत्यों के प्रति प्रमादपतित नहीं हुई । पूर्णिमा के चन्द्र जैसी गौरवर्णवाली उस त्रिशला महारानी को अमलिन चित्त देखकर हर्षित हुमा नरेमा सिद्धार्थ ऐसा मानता था कि मेरा यह पुण्यलभ्य गृहस्थ धर्म धन्य है । शिरीषपुष्प के सी कोमल अंगवाली उस त्रिशला की कपोलपाली में जो कि स्फटिकमणि के समान कान्तिवाली