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वर्धमान चम्मूः
प्रतिविम्बिताङ्गोऽनङ्गबन्धुः कुरङ्गालक्ष्मेन्दुधूम्रवर्णोपेत इव रात्री प्रतिभाति स्म । इत्थं नारीत्वेऽपि सर्वोत्कृष्ट सौभाग्यसुखमनुभूयमानायास्तस्या गर्भार्भकसंरक्षणतत्पराभिर्देवीभिः समुपास्यमानायाः समुधितलभ्यमानकृतप्रश्नोत्तराभिः समं सुखं सुखेनाबाधगत्या दिवसा निन्ति स्म ।
धन्या सा जननी पिताऽपि सूकृतो गेहं च तत्पावनम्, धन्या सा घटिका रसाऽपि सफला साऽनेन याऽलंकृता । स्थोत्पस्या, दिवसोऽपि सोऽपि महितो वोरेण मोक्षार्थिना, जात्या संविहितो नमामि नितरां तं सन्मति सन्मतिम् ।। ४० ।।
थी प्रतिविम्बित हुमा अनङ्गबन्धु चन्द्र रात्रि में कुरङ्गलाञ्छनवाला होने के कारण धूमिलवर्णोपेत जैसा प्रतीत होता था- झलकता था । गर्भावस्था में वर्तमान विमला रानी से देवियां विविध प्रकार के प्रश्नों को पूछा करतीं और समुचित उत्तर प्राप्त करती थीं । इस तरह देवियां माता का मनोरंजन किया करती । स्त्रीपना होने पर भी सर्वोत्कृष्ट सौभाग्य का अनुभव करती हुई त्रिशला माता के गर्भ के संरक्षण करने में दत्तावधान बनी हुई वे देवियां माता की सेवा से एक क्षण भी विमुख नहीं होती थीं । इस प्रकार बड़ी शान्ति और प्रानन्द के साथ अबाधगति से त्रिशला माता का समय निकलने लगा।
वह मासा धन्य है, वह पिता भी धन्य है, वह धरा भी पवित्र है, वह घड़ी भी प्रशंसनीय है, वह भूमि भी भाग्यवती है और वह दिवस भी अत्यन्त पूजनीय है जिसको इस मोक्षगामी श्री वीर प्रभु ने अपने शुभजन्म से पवित्र किया है—अलंकृत किया है । अतः मैं परमोत्कृष्ट भक्तिपूर्वक उन सन्मतिशाली सन्मति वीर प्रभु को नमस्कार करता हूं ॥ ४० ॥