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वर्धमानः
पुण्यं यः समुपाजितं परमये ते प्राप्नुवन्ति श्रियम्, जायन्ते जगतीह तेऽमरनिर्मः पुंभिश्व सेव्याः सदा । श्रीमतोर्यकृतां भवन्ति मुवि ते जन्मप्रदाः प्राणिनः, तस्माल्लब्धमनुष्यजन्म हितकृरपुष्ये मतिर्धीयताम् ॥ ४१ ॥
वृष्टा मयाऽनेकविधा मनाढ्या केचिन्मदान्धाः सरलाइ केचित्, केचिद्दयाहीनहृवः कठोरा परापवौनापि सदाशया हा ! केचिच्च शैवालयुताश्मतुझ्या वाचैव रम्या, न च शारदायाः पुत्रांश्च रिक्तान्प्रति केऽपि दृष्टा क्यालयः सन्तु तथाऽऽशयो मे ॥ ४२ ॥
इत्थं नरेशजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन् श्रीमूलचन्द्र विदुषामन बावरेण । तीयकः स्तबक एष गती सुवे स्थात् स्वर्गं गतस्य जननीजनकस्य साथत् द्वितीयः स्तबकः समाप्तः
॥ ४३ ॥
जिन्होंने पूर्वभव में पुण्य उपार्जित किया है वे लक्ष्मी के भोक्ता होते हैं, देवता तुल्य मनुष्य उनकी सेवा में निरन्तर निरत रहते हैं, ऐसे जीव हो तीर्थंकर जैसी महान विभूतियों के जन्मदाता होते हैं । इसलिये पुण्यलभ्य इस मनुष्य जन्म में हितविधायक पुण्यकर्म में है सज्जनो ! अपनी बुद्धि को लगाओ ।। ४१ ॥
पूर्व पुण्यकर्म के उदय से जिन्हें बाह्य विभूति प्राप्त हो जाती है। उनमें से कितने ही व्यक्ति तो उसके मद से अन्धे हो जाते हैं- हेय और उपादेय के ज्ञान से रहित हो जाते हैं, कितने ही जन सरल - कषाय की उत्कटता से रहित हो जाते हैं, कितने ही जन दयाविहीन हृदयवाले हो जाते हैं, कितने ही धनिकजन इतने अधिक कठोर हो जाते हैं कि वे दूसरों की प्रापत्ति तक में सहायक नहीं होते। कितने ही धनाढ्यजन काई से आच्छादित हुए पाषाण की तरह ऊपर से मीठी-मीठी बातें करते हैं । ऐसे ऐसे धनाढ्यों को मैंने देखा है परन्तु ऐसे धनाढ्यों को ग्राजतक नहीं देखा जो गरीब अधिकारी विद्वानों के प्रति अपनी दयालुता का प्रदर्शन करते हों । अतः मेरा यही सदाशय है कि धनिकवर्ग विद्वानों के प्रति सदाशयवाले बनें ॥ ४२ ॥
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द्वितीयपुत्र नरेशकुमार के जनक एवं मनवा के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा रचित इस वर्धमानचम्पू काव्य में यह द्वितीय स्तवक समाप्त हुआ। यह दिवंगत पूज्य जननीजनक को हर्ष प्रदाता हो ।। ४३ ।।
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