________________
वर्धमानचम्पूः
139
तपस्विनोऽस्य प्रथमा पारणा कूलनगरे दानतीर्थंकरस्य वकुलस्य राजप्रासादे सम्पन्नाऽभवत् । श्रात्मध्यामाद्विनिवृत्तस्य यवा भवति स्मास्य शरीरार्थमाहारादानसमीहा तथाऽसौ निस्पृह वृत्यंवाहरति हम ।
निकटस्थं ग्रामं पुरं पत्तन वा मुनिचर्यानुसारेण गत्वा विधिपूर्वकं निर्दोषमाहारम् । पश्चात्ततस्तपस्यां विधातुं वनं पर्वतं वा समेत्य कुत्रचिवसौ दिनद्वयं वचन चतुदिवसात् क्वचिच्च सप्तदिनानि वा तिष्ठति स्म । तदनन्तरमसौगच्छतिस्म ततो विहृत्यान्यत्र यस्मिन् कस्मिंश्चिदपि स्थानान्तरे निर्जनं प्रदेशम् | यदि कदाचिदसों निब्राकर्मयशंगतो भवेत्तथा पाकेनैव क्षणवायाः पश्चिमे भागे किञ्चित्कालं संभाज्यं भूमावेव स्वपिति स्म ।
इन तपस्वी का सर्वप्रथम पारणा कूल नगर में दानतीर्थ के प्रवर्त्तक बकुल नरेश के राजमहल में हुआ था। जब ये ग्रात्मध्यान से निवृत्त होते ये तत्र भी इनको श्राहार ग्रहण करने की इच्छा यद्यपि नहीं होती थी फिर भी ये निस्पृह वृत्ति से हो आहार ग्रहण करते थे, आहार को लोलुपता या गुद्धता से नहीं और न शरीर को पोषण करने के भाव से ही । धर्म का साधनभूत शरीर है इसी भाव से ये श्राहार ग्रहण करते थे ।
गोचरी के लिए ये निकट के ग्राम में, पुर में या पत्तन यादि में मुनिचर्या के अनुसार जाते। वहां प्रहार की विधि के अनुसार जो निर्दोष आहार इन्हें मिलता उसे ले लेते । पश्चात् तपस्या करने के लिए वहां से किसी वन में या पर्वत पर चले जाते । विहार करते समय कहीं दो दिन, कहीं चार दिन और कहीं सात दिन तक ठहरते । इसके बाद ये वहां से बिहार करके दूसरी जगह पहुँच जाते । यदि कभी इन्हें निद्रावरणी कर्म के उदय से निद्रा प्रती तो ये रात्रि के पिछले पहर में एक ही करवट से सोते सो भी अधिक समय तक नहीं, केवल थोड़े से ही समय तक ।