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वर्धमानचम्पूः
इस्थमसौ वापयति स्मात्मसाधनायामधिकं शारीरिकसाधनायां च न्यूनातिनूनं कालम् । श्रमुना प्रकारेण कठोरातिकठोरां तपसि चयाँ समाचरससौ विजहार देशाद्देशान्तरम् । भोजनार्थमेव केवलं ग्रामं पुरं घा समागच्छत् । श्रवशिष्टं वाडनेहसं विजने वने, पर्वते, दर्या, नद्यास्तदे, पितृवने, वोधाने च निर्गमयति स्म ।
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भयदा बन्या हिला, श्वापदा यदा समागच्छन् प्रभोस्तस्याम्यर्ण तदा तंप्रशान्तमूर्ति वीक्ष्यैव तेषां क्रूरा हिंसाश्मिका दुर्भावना जिघांसा व स्वतः एव प्रशान्ता जायते स्म । परस्परजातिविरोधिनोऽपि शार्दूला मृगा व्याला नकुला मार्जारा मूषकाश्चेत्यादयः प्राणिनां जन्मजातवैरं विरोधं द्वेषं च विहाय प्रेम्णा प्रशान्तवृत्या चाहिसा मूर्त्तस्तस्य स्वामिनः सविधे तिष्ठन्ति स्म मिथश्च प्रक्रीडन्ति स्म ।
इस तरह ये आत्मसाधना में अधिक से अधिक समय व्यतीत करते और शारीरिक साधना में कम से कम समय लगाते। इस प्रकार ले तप में कठोरातिकठोर चर्या करते हुए थे एक स्थान से दूसरे स्थान में विहार करते रहते | केवल भोजन - प्रहार के लिये ही ये ग्राम या नगर में आते और अपना अवशिष्ट समय या तो निर्जन वन में या पर्वत पर या गुफा में या नदी के तट पर या श्मशान में अथवा किसी बगीचे में समाधिस्थ होकर व्यतीत करते ।
जब भयप्रद जंगली जानवर प्रभु के समीप आते तो वे उन्हें देखकर ही अपनी क्रूर हिंसक दुर्भावना को और जिघांसा को छोड़ देते थे । परस्पर प्रति विरोधी शार्दूल - मृग, व्याल- नकुल, मार्जार और मूलक आदि जीव भी जन्मजात र विरोध-द्वेष का परित्याग कर बड़े प्रेम से हिलमिलकर शान्तिपूर्वक ग्रहिंसा की मूर्तिस्वरूप उन स्वामी के निकट बैठते थे और आपस में अमन चैन के साथ विविध प्रकार की खूब क्रीडाएं करते रहते थे ।