________________
वर्धमानचम्मूः
141
दीपः स्वभावाद्धि यथा तमोघ्नः,
ज्ञानं यथाऽशान लियर्तकं वा। यथौषधं वास्ति गदापहारि,
वह्निर्यथा चेन्धनदाहकारी ॥ १६ ॥
तथैव जीवे खलु वर्तमानः,
रामाद्यभावः समतास्वरूपः । स्वभावतो वैरविरोधहन्ता,
संजायते नात्र विवादलेशः ।। २० ॥
यत्रास्त्यहिंसात्मकवृत्तिशाली, साधुः प्रभावात् सहसा तदीयात् । वृष्टया यथा शाम्यति वह्निरित्थं, शाम्यन्ति तत्रापि विरोधरोगाः ॥२१॥
चन्वनोद्धारः अमुना प्रकारेण विविधस्थलेषु विहरनसौ तीर्थकरो महावीरोऽन्येयुवत्सदेशान्तर्गतां कोशाम्बीनगरोमाहारार्थमायात् । प्रासीसत्रको
जिस प्रकार दीपक स्वभावतः अन्धकार का विनाशक होता है, ज्ञान अज्ञान का निवर्तक होता है, औषध रोग-निवारक होता है और अग्नि ईंधन को जलानेवाली होती है उसी प्रकार जीव में वर्तमान समतारूप रागादिक भावों का प्रभाव वैर-विरोध का नाशक होता है । जहां अहिसात्मकयुत्तिशाली साध रहता है वहां वष्टि से अग्नि की तरह बरविरोधादिरोग शान्त हो जाते हैं ।। १६-२१ ।।
चन्दना सती का उद्धार इस प्रकार अनेक स्थलों में विहार करते हए तीर्थकर महावीर एक दिन वत्सदेश के अन्तर्गत कौशाम्बी नगरी में प्राहार के निमित्त पधारे ।